रविन्द्र नाथ टैगोर और उनके दर्शन का भारतीय शिक्षण विधियों पर प्रभाव

Dr. Mulla Adam Ali
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Dr. Trilok Nath Pandey, Rabindranath Tagore's educational philosophy and his influence on the Indian education system.

Educational philosophy of Rabindranath Tagore

educational philosophy of tagore

यह लेख रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा-दर्शन और उसके भारतीय शिक्षण प्रणाली पर प्रभाव का विश्लेषण करता है। टैगोर की शिक्षण शैली आज की शिक्षा नीतियों, कला-सम्पृक्त और समग्र शिक्षा के मूल में दिखाई देती है।

रविन्द्र नाथ टैगोर

और उनके दर्शन का भारतीय शिक्षण विधियों पर प्रभाव

भूमिका:

भारतीय शिक्षण परंपरा का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है। इसमें गुरुकुल प्रणाली से लेकर आधुनिक विद्यालयों तक विविध रूप देखने को मिलते हैं। 19वीं और 20वीं शताब्दी में जब भारतीय शिक्षा अंग्रेज़ी औपनिवेशिक प्रभाव में बदल रही थी, तब रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने अपने शिक्षा-दर्शन से भारतीय शिक्षण पद्धति को एक नया आयाम प्रदान किया। उनके विचार आज भी शिक्षण के मानवीय, रचनात्मक और समावेशी स्वरूप के प्रेरक स्रोत बने हुए हैं।

टैगोर का जीवन और शिक्षा-दर्शन:

रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861–1941) केवल एक कवि, लेखक, चित्रकार और संगीतकार ही नहीं थे, बल्कि वे एक दूरदर्शी शिक्षाशास्त्री भी थे। उनका विश्वास था कि शिक्षा केवल सूचना देना नहीं, बल्कि आत्मा का विकास है। वे शिक्षा को प्रकृति से जोड़ने वाले, बालक की स्वतंत्रता को स्वीकारने वाले और अनुभवों के माध्यम से सीखने की प्रक्रिया मानते थे।

टैगोर की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य मानवता, सौंदर्य, और सह-अस्तित्व की चेतना को विकसित करना है। उनके अनुसार, शिक्षा को जीवन के साथ जोड़कर चलना चाहिए, न कि जीवन से कटे हुए शुष्क तथ्यों के संग्रह के रूप में।


शांतिनिकेतन और विश्व-भारती विश्वविद्यालय:

टैगोर ने अपने शिक्षा-दर्शन को व्यावहारिक रूप देने के लिए सन् 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की। यह विद्यालय प्रकृति की गोद में स्थित था, जहाँ विद्यार्थी खुले वातावरण में स्वतंत्र रूप से सीखते थे।

1921 में इसे विश्व-भारती विश्वविद्यालय का रूप दिया गया, जहाँ "यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्" (जहाँ पूरी दुनिया एक घोंसले के रूप में बसे) की भावना को साकार किया गया। यहाँ भारतीय परंपरा और पश्चिमी ज्ञान का समन्वय किया गया।


टैगोर के शिक्षा-दर्शन के प्रमुख तत्व:

प्राकृतिक परिवेश में शिक्षा – टैगोर के विद्यालयों में शिक्षण खुले वातावरण में होता था जिससे विद्यार्थी प्रकृति से जुड़ सकें और उसमें सौंदर्य अनुभव कर सकें।

स्वतंत्रता और रचनात्मकता – वे बच्चों को जबरन पाठ्यक्रम रटवाने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि हर बच्चे में एक रचनात्मक शक्ति होती है, जिसे शिक्षा के माध्यम से विकसित किया जाना चाहिए।

कला और संगीत का महत्व – टैगोर की शिक्षा प्रणाली में कला, संगीत, नाटक, और साहित्य को मुख्य स्थान प्राप्त था। उनका मानना था कि ये विधाएं बच्चों की भावनात्मक और नैतिक शिक्षा में सहायक होती हैं।

अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण – टैगोर चाहते थे कि भारत विश्व के साथ संवाद करे, पर अपनी जड़ों से कटे नहीं। उन्होंने शिक्षा में वैश्विक दृष्टिकोण का समावेश किया।

गुरु-शिष्य परंपरा का आधुनिक स्वरूप – वे व्यक्तिगत संवाद और आत्मीयता पर बल देते थे। शिक्षक और शिष्य के बीच संबंध औपचारिक नहीं बल्कि आत्मीय और मुक्त था।


भारतीय शिक्षण विधियों पर प्रभाव:

समग्र शिक्षा की अवधारणा – आज की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) में "समग्र विकास", "कला एकीकृत शिक्षण", "अनुभव आधारित शिक्षण" जैसी अवधारणाएं टैगोर के विचारों से मेल खाती हैं।

बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक शिक्षा – टैगोर ने भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात की थी, जिसे आज पुनः स्वीकार किया जा रहा है।

सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया – उनके विचारों ने ‘Montessori’, ‘Waldorf’, और ‘Activity-based Learning’ जैसी आधुनिक शिक्षण विधियों को भी प्रभावित किया है।

गैर-औपचारिक शिक्षा और मुक्त शिक्षा – टैगोर का दृष्टिकोण आज के ‘Open Schooling’, ‘MOOCs’, और ‘Experiential Learning’ में स्पष्ट दिखाई देता है।

कला-सम्पृक्त शिक्षा – टैगोर की शिक्षा में संगीत, चित्रकला, कविता, नाटक जैसी विधाओं का जो समावेश था, वही आज 'Arts Integration' और 'STEAM Education' में उभर कर सामने आया है।


आलोचनात्मक विश्लेषण:

टैगोर का शिक्षा-दर्शन उस युग में क्रांतिकारी था, जब शिक्षा को केवल रोजगार के साधन के रूप में देखा जा रहा था। उनके विचारों ने भारतीय शिक्षा को मानवीय मूल्य, सौंदर्यबोध और सार्वभौमिकता की ओर मोड़ा। हालांकि, उनके मॉडल को बड़े पैमाने पर अपनाना कठिन रहा क्योंकि वह संसाधन-संवेदनशील था।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा-दर्शन आज भी शिक्षकों, नीति-निर्माताओं और शिक्षार्थियों के लिए एक आदर्श मार्गदर्शन है। उन्होंने शिक्षा को जीवन का उत्सव बनाया – ज्ञान, सौंदर्य, प्रकृति और मानवता का संगम। उनके सिद्धांत आज के भारतीय शिक्षा तंत्र में नवाचार और समग्र विकास के मूल मंत्र के रूप में पुनः स्थापित हो रहे हैं।


लेखक:

डॉ. त्रिलोक नाथ पांडेय

प्रमुख - हिंदी विभाग, कोलकाता बॉयज़ स्कूल
अतिथि व्याख्याता - सेंट जेवियर्स कॉलेज ऑफ एजुकेशन, कोलकाता
वरिष्ठ पत्रकार, स्वर कलाकार, कवि एवं राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला विशेषज्ञ

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