The journey of Hindi children’s novels reflects creativity, cultural values, and changing trends from pre-independence to the 21st century. Based on Dr. Malti Basant’s critical research, this study highlights the evolution, themes, and future possibilities of Hindi children’s literature.
The Evolution of Hindi Children’s Novels: A Critical Review and Analysis
हिंदी बाल उपन्यासों की विकास यात्रा: समीक्षा और विश्लेषण
हिंदी बाल उपन्यासों की विकास यात्रा विविध आयामों और प्रयोगों से भरी हुई है। स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर समकालीन समय तक इस विधा ने न केवल बच्चों के मनोरंजन, बल्कि उनके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डॉ. मालती बसंत का यह शोध हिंदी बाल उपन्यासों की परंपरा, विशेषताओं और संभावनाओं का गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो निश्चय ही हिंदी बालसाहित्य को नई दृष्टि और दिशा प्रदान करेगा।
रोचक है हिन्दी के बाल उपन्यासों की सृजन यात्रा
समकालीन बालसाहित्य लेखन ने इस भ्रम को तोड़ा है कि हिंदी में बालसाहित्य का अभाव है या अच्छा बालसाहित्य नहीं लिखा जा रहा है। आज इक्कीसवीं शताब्दी में बालसाहित्य की स्थिति में बहुत बदलाव आया है। लेखन, प्रकाशन, शोध एवं समीक्षा की दृष्टि से बालसाहित्य न केवल समृद्ध हुआ है अपितु उसमें व्यापक परिवर्तन भी आया है।अब उन लोगों की बात जाने दीजिए जो बालसाहित्य की ओर से अपनी दोनों आँखें मूँदे हुए हैं और कानों को जानबूझकर ढँक रखा है। वे बालसाहित्य की प्रगति की ओर निहारना ही नहीं चाहते हैं। ऐसे लोगों का अरण्यरुदन तो पहले भी था, आज भी है और कल भी रहेगा।
'हिन्दी के स्वातंत्र्योत्तर बालउपन्यासों का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर मालती (महावर) बसंत को देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से सन् 2012 में पीएच०डी० की उपाधि प्राप्त हुई थी। प्रसन्नता की बात है कि यह शोध प्रबंध अब हिन्दी "बालउपन्यास : समीक्षा के आइने में" शीर्षक से अपना प्रकाशन, इंदौर से प्रकाशित हो रहा है।
मुझे इस ग्रंथ की पांडुलिपि देखने / पढ़ने का अवसर मिला। छह अध्यायों में विभक्त यह ग्रंथ हिन्दी बाल उपन्यासों की विकास - यात्रा को परत दर परत समेटता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़कर अपने उत्कर्ष पर पहुँचा है।
ग्रंथ में बालउपन्यास की परिभाषाओं के बहाने उसके महत्त्व को दर्शाया गया है। हिन्दी में प्रकाशित बालउपन्यासों की लंबी परंपरा रही है। स्वतंत्रता पूर्व की अपेक्षा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बालउपन्यासों के लेखन की दिशा में तेजी आई। सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और पौराणिक तथा राष्ट्रीय कथानकों को आधार बनाकर इस समय अनेक मौलिक उपन्यास लिखे गए। प्रेमचंद की उत्कृष्ट रचना 'एक एक कुत्ते की कहानी' को हिंदी का पहला बालउपन्यास माना जाता है। सन् 1952 में भूपनारायण दीक्षित का बालउपन्यास खड़ खड़ देव, बालसखा में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। सन् 1957 में अयोध्या प्रसाद झा का एक बालउपन्यास लाल पुतला भी किशोर मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
हिंदी के ये आरंभिक बालउपन्यास इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं कि इनमें बच्चों के लिए रोचक सामग्री का समावेश किया गया। आगे चलकर धीरे- धीरे मनोविज्ञान, फंतासी एवं यथार्थ का भी बालउपन्यासों में समावेश हुआ। कुछ जासूसी उपन्यास भी लिखे गए।
छठें दशक में बालउपन्यासों को केंद्र में रखकर विशेष रूप से चिंतन - मनन शुरू हुआ। जिसका परिणाम यह निकला की कई ऐसे बालउपन्यास सामने आए जिनमें पूरी बालउपन्यास लेखन की परंपरा हिलोरें ले रही है। ऐसे उपन्यासों में हिमांशु श्रीवास्तव चंदा मामा दूर के, सत्यप्रकाश अग्रवाल का एक डर पाँच निडर, कृश्न चन्दर का खरगोश का सपना, लक्ष्मीनारायण लाल का हरी घाटी, द्रोणवीर कोहली का करामाती कद्दू तथा हरिकृष्ण देवसरे का डाकू का बेटा जैसे बालउपन्यास सामने आए। इन उपन्यासों में बालमन तथा बालचेतना को प्रमुखता से रेखांकित किया गया। यहीं से से बाल उपन्यासों में एक नए प्रयोग की शुरुआत की शुरुआत प्रयोग की शुरुआत की शुरुआत हुई। जासूसी और विज्ञान से जुड़े बालों जुड़े बालों उपन्यासों को सम्मिलित करने का यहीं से प्रारंभ हुआ।
छठें और सातवें दशक में चर्चित अनेक विदेशी उपन्यास रूपांतरित होकर हिंदी बाल साहित्य में आए। अंग्रेजी उपन्यास दि गोल्डन मिल का सोने की चक्की नाम से कमला सोंधी द्वारा अनुवाद किया गया। द्रोणवीर कोहली ने जर्मन उपन्यास का फूलों की टोकरी शीर्षक से अनुवाद किया। किशोर गर्ग ने मि० रैबिट एंड फाक्स का चालाक खरगोश शीर्षक से अनुवाद किया। लुईस कैरोल के सुप्रसिद्ध उपन्यास एलिस इन द वंडरलैंड का हिंदी अनुवाद आश्चर्यलोक में एलिस शीर्षक से शमशेर बहादुर सिंह ने तथा रूसी भाषा का अनुवाद योगेन्द्र कुमार लल्ला ने अनाड़ी अनाड़ीराम और उसके साथी शीर्षक से किया। विनोद कुमार ने दो प्रसिद्ध उपन्यासों राजा और भिखारी तथा टाम काका की कुटिया का अनुवाद किया जिसका प्रकाशन पराग पत्रिका में हुआ। गुजराती बालउपन्यास जादूगर कबीर का हिंदी रूपांतर मनहर चौहान द्वारा किया गया जिसका प्रकाशन साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक रूप में हुआ। बांग्ला के उपन्यासों का भी हिंदी में अनुवाद इसी काल में हुआ।
हिंदी बाल उपन्यासों का यह दौर विशेष रुप से याद रहेगा क्योंकि इस दौर में विविध विषयों पर केंद्रित शताधिक बालउपन्यास प्रकाशित हुए। उनमें से कुछ उपन्यास पत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक प्रकाशित हुए तो कुछ का प्रकाशन सीधे पुस्तकाकार हुआ। ऐसे उपन्यासों में कुछ प्रमुख हैं:-- सागर का घोड़ा :भगवतशरण उपाध्याय, जयसोमनाथ :बांके बिहारी भटनागर, मांँ का आंँचल और नन्हें जासूस : शांति भटनागर, हाथियों के घेरे में : स्वदेश कुमार, बीस बरस की मौत, बर्फ का आदमी, एक घंटे बाद तथा बोतल में बंद आदमी: वीर कुमार अधीर, डाकुओं के बीच : रामकुमार भ्रमर, राधा: मधुकर सिंह, शाही हकीम, एक कटोरा पानी तथा इंदल का विवाह : राधेश्याम प्रगल्भ, बीरबल :ललित सहगल, एक था छोटा सिपाही : विमला शर्मा, खोखला सिक्का : अवतार सिंह, नकली चांँद : राजेश कुमार जैन, होटल का रहस्य, सुरखाब के पर, जाली नोट :हरिकृष्ण देवसरे, शनिलोक : विभा देवसरे, नानी माँ का महल : देवेंद्र कुमार, अस्सी घाव :यादवेंद्र शर्मा चंद्र,आकाशवाणी : व्यथितहृदय, राजपूत का बेटा: ओमप्रकाश, सूरज का बेटा :गोविंद सिंह तथा रामगंगा का शेर: चंद्रदत्त 'इंदु' आदि।
धीरे - धीरे आगे चलकर बालउपन्यास लेखन के केंद्र में में बच्चे आ गए। उनकी परिस्थितियों और समस्याओं को ध्यान में रखकर उपन्यास लिखे जाने लगे। ऐसे उपन्यासों को प्रकाशित करने का श्रेय प्रमुख बालपत्रिकाओं नंदन और पराग को है। धर्मयुग तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान ने भी अपने स्तंभों क्रमशः बालजगत और फुलवारी में अनेक रोचक तथा महत्त्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित किए। पराग में प्रकाशित होने वाले प्रमुख बाल उपन्यासों में :- बहत्तर साल का बच्चा: आबिद सुरती, खलीफा तरबूजी: के०पी० सक्सेना, नागराज वासुकि: देवराज दिनेश, चींटीपुरम के भूरेलाल : मुद्राराक्षस, शाबाश श्यामू : श्रीप्रसाद, एक डर पाँच निडर: सत्यप्रकाश अग्रवाल, चंदामामा दूर के : हरिकृष्ण देवसरे आदि। इनके अतिरिक्त नंदन में प्रकाशित लक्ष्मीनारायण लाल का उपन्यास - हरी घाटी, धर्मयुग में प्रकाशित मनहर चौहान का धारावाहिक उपन्यास- जादुई खड़िया, करामाती कद्दू तथा शशिप्रभा शास्त्री का रोचक उपन्यास सुनहरा बच्चों में बहुत लोकप्रिय हुआ।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में हिंदी के बाल उपन्यासों ने विशेष प्रगति की। प्रकाशन की दृष्टि से यह काल विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण रहा है। इसमें एक साथ साथ कई पीढ़ियों के रचनाकर सक्रिय रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंत तक का समय बालसाहित्य के उतार-चढ़ाव और उलझाव-सुलझाव का रहा है। समय की धारा में हिचकोले खाता हुआ बालसाहित्य कभी डूबता तो कभी उतराता रहा, बालउपन्यास भी इससे अछूता नहीं रहा है। किस काल में में आए बालउपन्यासों ने बच्चों को विशेष रूप से प्रभावित किया। ऐसे उपन्यासों में :- अक्ल बड़ी या भैंस: अमृतलाल नागर, बोसकी के कप्तान चाचा : गुलजार, उस्ताद भूरेलाल :बल्लभ डोभाल, नागों के देश में :भगवती शरण मिश्र, घड़ियों की हड़ताल : रमेश थानवी, भवानी के गांव का बाघ :क्षितिज शर्मा, आंँगन - आंँगन फूल खिले हैं: गीता पुष्प शाॅ, पेड़ नहीं कट रहे हैं तथा चिड़िया और चिमनी देवेंद्र कुमार, पाँच जासूस : शकुंतला वर्मा, दूसरा पाठ, शिब्बू पहलवान, मिट्ठू का घर, पीलू राजा बदल गया तथा होमवर्क: सभी की लेखिका क्षमा शर्मा, गोलू और भोलू : पंकज बिष्ट, काजू और किशमिश : रतन शर्मा, कमाल का कमाल : बलवीर त्यागी, सत्य का बल बल :यादराम रसेन्द्र, कंप्यूटर के जाल में तथा गजमुक्ता की तलाश : इरा सक्सेना, गोल्डी सिल्विया के कारनामे :अभिलाष वर्मा, लाखों में एक, नन्हा दधीचि, हीरे का मोल, पारसपत्थर :सभी की लेखिका लेखिका उषा यादव, शाबाश मन्नू: अमर गोस्वामी तथा डाक बाबू का पार्सल: द्रोणवीर कोहली आदि विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
आज बच्चों की समस्याओं और उनके दैनंदिन जीवन को केंद्र में रखकर अधिक से अधिक बालउपन्यास लिखे जाने की आवश्यकता है। आज बालउपन्यास आपसी बोलचाल और वर्तमान परिवेश को ध्यान में रखकर लिखे जाने चाहिए। विज्ञान के नित नए आविष्कारों और प्रयोगों को भी प्रयोगों प्रयोगों को भी केंद्र में रखकर अच्छे बालउपन्यास लिखे जा सकते हैं। कुल मिलाकर बालउपन्यास लेखन एक चुनौती है। कविताएंँ, कहानियांँ, तथा नाटक लिखने में अपेक्षाकृत कम समय और श्रम लगता है। उपन्यास कलेवर में विस्तृत होने के कारण अधिक समय और श्रम की मांँग करता है। बालसाहित्यकारों को इसे चुनौती के रूप में स्वीकार कर अधिक से अधिक रोचक और मनपसंद बालउपन्यासों का सृजन करना चाहिए।
डॉ. मालती बसंत ने हिन्दी के बालउपन्यासों की विकास यात्रा का अध्ययन करते हुए समकालीन बालउपन्यासकारों की शैली, शिल्प तथा संभावनाओं पर भी गंभीरता से विचार- विमर्श किया है। उन्होंने हिन्दी के बालउपन्यासों का तात्विक विश्लेषण करते हुए उसमें निहित अंतर्कथाओं और पौराणिक संदर्भों, मुहावरों और कहावतों का प्रयोग पर भी विहंगम दृष्टि डाली है।
हिन्दी के बालउपन्यासों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उसमें कल्पना तथा चिंतन के साथ व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। लेखिका ने हिन्दी के बालउपन्यासों का सांस्कृतिक दृष्टि से भी विश्लेषण किया है जिसमें भारतीय संस्कार, नैतिक मूल्य, पारिवारिक एवं सामाजिक संचेतना के साथ पर्यावरण पर भी गंभीरता से विचार किया गया है।
पुस्तक का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें बालउपन्यासों के विकास में जन - संचार माध्यमों एवं सूचना क्रांति की अहम भूमिका का भी विश्लेषण किया गया है। पत्र - पत्रिकाओं के अतिरिक्त इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक टेक्नोलॉजी के इस युग में आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से भी हिन्दी के बालउपन्यासों की विकास यात्रा का अध्ययन प्रस्तुत पुस्तक की उपलब्धि है।
अंत में हिन्दी के बालउपन्यासों की वर्तमान स्थिति एवं भविष्य पर भी अपने सारगर्भित विचार व्यक्त करते हुए डॉ. मालती बसंत ने बालउपन्यासों की सीमाएंँ और संभावनाओं के साथ- साथ लेखक के दायित्वबोध को भी बखूबी दर्शाया है।
मुझे पूरा विश्वास है कि डाॅ. मालती बसंत का यह शोध प्रबंध पुस्तकाकार प्रकाशित होने पर न केवल एक बड़े अभाव की पूर्ति करेगा अपितु संभावनाओं के नए द्वार भी खोलने में सक्षम होगा।
© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम
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