Sharad Joshi, one of the finest satirists in Hindi literature, captures the absurdities of bureaucracy in his celebrated piece “Afsar.” Through sharp wit and irony, the satire unveils the mindset of an officer, reflecting both personal and social contradictions.
“Afsar” by Sharad Joshi – A Satire on Bureaucracy in Hindi Literature
शरद जोशी का व्यंग्य ‘अफसर’ | अफसरशाही पर व्यंग्यात्मक अंतर्पाठ
शरद जोशी के प्रसिद्ध व्यंग्य ‘अफसर’ में अफसरशाही, दफ्तर की व्यवस्था और पारिवारिक जीवन के विडंबनापूर्ण पहलुओं का गहन अंतर्पाठ। पढ़िए कैसे व्यंग्य भाषा, दृश्य योजना और शब्द-संरचना अफसर के शाश्वत चरित्र को उजागर करती है।
शरद जोशी के व्यंग्य 'अफसर' का अंतर्पाठ
- बी. एल. आच्छा
व्यंग्य भाषा का स्थापत्य व्यंजना के अर्थ- क्षेत्र तक ले जाता है। यह रचना विशेष में भी विशिष्ट हो सकता है और व्यंग्यकार के समग्र लेखन की अंतर्भूत विशिष्टताओं की पहचान भी। यही नहीं इन व्यंग्यों में कथा-तत्त्व, नाट्यपरक दृश्यात्मकता, विषयानुरूप शब्दावली के चयन, नये शब्दों की गढ़न, शब्दों में विकार- वक्रता, कोड- मिक्सिंग, परिदृश्यों में कंट्रास्ट, पात्रों की निर्मिति जैसे अनेक पक्ष विशिष्ट हो जाते हैं। ये विशेषताएँ केवल विधागत संक्रमण से ही विशिष्ट नहीं हो जातीं, बल्कि शब्द नियोजन की अंडरटोन, रंजक वक्रता, मार की आक्रामकता, वैचारिक संबोध, सवालिया तर्क और विषय से विषयेतर को लपेटती बौद्धिक छलाँग पाठकों को संकर्षित कर जाती है।
'अफसर' शीर्षक शरद जोशी के व्यंग्य 'झरता नीम शाश्वत थीम' की तरह सादृश्य व्यंजना और लयात्मकता से पुष्ट नहीं है। पर अफसर के समूचे चरित्र चित्रण के लिए संघनन की दृष्टि से व्यंग्य की खूंटी बन जाता है। मोतियाबिन्द की तरह व्यंग्यकार 'अफसरबिन्द' की तबीयत से शल्यचिकित्सा करता है। शरद जी के व्यंग्यों में एक वृत्ति साफ लक्षित होती है, वह है चुंबकीय सम्प्रेषण। इससे वे पाठकों को बौद्धिक परिहास और लाक्षणिकता के साथ चिपकाए रहते हैं। वे विषय-क्षेत्र तक सीमित नहीं रहते ।कथानक की संरचना में परिवेश और विषयेतर को समग्रता से खींच लाते हैं। इस व्यंग्य की पहली पंक्ति में ही कथा- तत्व, कंट्रास्ट और कुंडली- खोल मनोविज्ञान के साथ जी भरकर खेलते हैं- "नाव में अफसर के साथ बैठने से बेहतर है कि डूब मरिए, क्योंकि जब सूराख होगा, वह आपसे उसका स्पष्टीकरण मांगेगा।" लक्षित है कि चाँदनी रात में नौका विहार में अफसर और मातहत के युगल पात्र हुए तो सुरम्य प्रकृति,चांदनी और हवाओं के शीतल स्पर्श भी ताप देने लगेंगे।अफसर चौबीस घंटे का अफसर होता है और मातहत उससे दूर हर क्षण छिटकने के लिए बेकरार । तब प्रकृति की स्वच्छंदता और अफसर-मातहत की दफ्तर- बंधता की विवश उबकाई डूब मरने तक ला पटकती है।
शरद जी सारे अफसर- प्रसंगों को बीन-बीन कर ले आते हैं। सारी दफ्तरीय शब्दावली को स्थापत्य मुद्रा की मुखर व्यंजना बनाते जाते हैं। अफसर परिवार में हो या दफ्तर में, कुर्सी पर हो या कुर्सी से स्थानांतरित; वह घनीभूत अफसरत्व से मुक्त नहीं हो पाता ।ऐसे में कमाल तो दृश्य बंध और शब्दावली के नियोजन का है। शरद जी अपने पात्रों के चेहरे की हर मुद्रा और दिनचर्या, हर कोण को लक्षित करते हैं। और सिमटे नहीं रहते बल्कि कुर्सी और अफसर को ईश्वर और आत्मा के शाश्वत दर्शन की थीम तक ले जाते हैं।
इस व्यंग्य का हर पैरा नाटक की तरह दृश्य योजना में अफसर को व्यंजक बना देता है। प्रकृति के स्वच्छन्द राग में जो रोमान्स कविता को उपजाता है, वह नाव के चप्पुओं को स्वच्छन्द नहीं रहने देता।नाव में सूराख पर सामने बैठे मातहत को नोटशीट,बजट, सेंक्शन, मेमो और आर्डर से लेकर सस्पेंड की शब्दावली में ही अटकाए रखता है। इस उबकाई में कितनी आसानी से एक सरल- सा वाक्य कितना अर्थ-श्लेषी बन जाता है- "वह बोर करता है, पर वह इतना सहज बोर है कि बेचारा नहीं जानता कि वह बोर है।" छायावादी प्रकृति भी उसकी अफसर- प्रकृति को दफ्तरी परिवेश से मुक्ति नहीं दिलवा पाती है।
पर नये दृश्य में इसकी विपरीत लक्षणा। दृश्य घर का है, यहाँ दफ्तर का बाबू नहीं, पत्नी और बच्चे हैं। विवश तो सस्पेंड और मेमो देने देने वाला अफसर पति है। शरद जी व्यंग्य-सूत्र में ऐसी जमावट कर देते हैं, जैसे कुंडली के नव ग्रहों के परिभ्रमण और चाल-चलन के परिणामों को व्यक्त कर रहे हों। वह परम अवस्था जब "पत्नी एक न सुलझने वाली चिरपेन्डिंग साक्षात् फाइल की तरह नजर आती है और हर बच्चा अपने आप में एक केस लगता है, जो हमेशा अनुशासन भंग करता है, पर जिसे न सस्पेंड किया जा सकता है और न जिसका प्रोमोशन रोका जा सकता है।" वाक्य रचना में शरद जी सरल वाक्यों की सूत्र- शैली में निष्णात हैं।पर यह जटिल मिश्रवाक्य संरचना स्वयं अफसर की जटिल विवशताओं का मनोविज्ञान बन जाती है।जिस पारिभाषिक शब्दावली को वे जड़ते चले जाते हैं, उसका पारिवारिक कंट्रास्ट केवल हास्य-रंजकता का फलित नहीं है। यह अफसरत्व के सांचे पर पारिवारिक विवशताओं का प्रहार है और शब्दों की कोड- मिक्सिंग इसे पति-पत्नी-बच्चों के बीच अफसर को विवश पुतले के रूप में खड़ा कर देती हैं- 'एक न सुलझने वाली साक्षात् फाइल'। पत्नी के मानवी रूप को फाइल के अमानवीकरण में रूपांतरित कीजिए। पर शब्द प्रयोग की सजगता देखिए- न सुलझनेवाली साक्षात् फाइल। 'अनसुलझी' शब्द का प्रयोग नहीं किया।वह तो भूतकाल का वर्तमान भर होता,पर सतत वर्तमान की विवशता का व्यंजक नहीं बन पाता।
निबंध-सी अनाट्य व्यंग्य संरचना में दृश्यों के बदलाव, नये प्रसंग और नयी अर्थव्यंजना ले आते हैं। दफ्तर, कुर्सियां, कागज, फाइलें, नये सेक्शन और इन्हीं की स्थायी संरचना के बीच अफसरों का बदलते जाना। अब पुराने दफ्तर में स्थायी कुर्सी और बदलते अफसरों का चक्रीय- बोध दर्शन में छलांग लगा जाता है-"अफसर जाता है पर अफसरी बनी रहती है। वह एक आत्मा है, एक शरीर के रिटायर होने बाद नया शरीर ग्रहण कर लेती है।" व्यंजना कितनी गहरी है। दफ्तरीय परिवेश में यथास्थितिवाद बना रहता है,एक जड़ीभूत व्यवस्था ।कोई नयी प्रणाली नहीं। बस पौधों के भोजपत्र में से विकसित होकर फाइलबद्ध होती हुई। शरद जी सादृश्यों- रूपकों को मारक बनाते जाते हैं-" एक गड्ढा भी बिना दस्तखत के नहीं खुद सकता, सो ज्यादा से ज्यादा अफसर चाहिए।" विकास, गड्ढ़े और अफसर के बीच पाठक इस कुंद व्यवस्था के प्रति तल्खी का एहसास कर जाता है।
फिर नया दृश्य कुर्सी वही, पर अफसर की बदली। विदाई और और स्वागत के बीच भाषण में कितनी नियंत्रित शब्द- खर्ची। पुराने की नियंत्रित प्रशंसा, नये अफसर के लिए मक्खनी शब्दावली का प्रयोग। दोनों को खुश करने के धर्मसंकट का जबान पर शब्द-ब्रेक। शरद जोशी इस दृश्यांतर में एक मारक पंक्ति जरूर फंसा देते है, हैं- "एक प्लेट से चमचा कूदकर दूसरी प्लेट में आ जाता है।" चमचा शब्द पर आपत्ति की जा सकती है। पर प्लेट और चम्मच का तो जन्म- जन्मांतर का संबंध है, उसी उसकी अनदेखी भी व्यंग्यकार कैसे करे? असल व्यंजना तो वही है, जो अन्य किसी शब्द से न की जा सके। अब स्टेज की बदलती ऊपरी रंगत, नये अफसर की आरंभिक उत्तेजना के बदलाव। पर पात्र वे ही, कुर्सी वही, कागज वही। नोटशीट, मेमो, सस्पेन्शन, शो-कॉज की वही धकियाती पुरानी चाल।
नये अफसर की दबंगई का आरंभिक प्रदर्शन और सरकारी राग-रंग के बंधे सूत्र। व्यंग्यकार उसी पिटी-पिटाई शब्दावली और अफसरी के पेंच वाली शब्दावली को चिपकाते हुए अंततः संवेदनहीन शब्द 'रूटीन' से नत्थी कर देता है। और दार्शनिकता के परिवर्तनहीन लहजे में कह जाता है- "आँधी आती है, फाइल हो जाती है। फूल खिलता है, स्टोर में जमा हो जाता है।" इस संवेदनहीनता में क्रूर और कोमल के अंतर का कोई संवेदन नहीं है।और यही 'रूटीन 'की विडम्बना है।
अब व्यंग्यकार अफसर के जातीय रूप में एक- सी आत्मा और एक-से व्यक्तित्व को स्कैन करने में चूकता नहीं। पुरानी कहावत की व्यंजक अर्थध्वनि आज भी आगाह करती है- "अफसर के सामने और घोड़े के पीछे नहीं आना चाहिए।" यह पूरे प्रशासनिक ढांचे की वह सच्चाई है, जिसमें अफसर से मातहत बिदकते ही रहते हैं। लेकिन उससे बंधे हैं फीते और फाइल में। छोटे छोटे तीरों से शरद जोशी कसैली आत्मानुभूति करवा देते हैं। उनकी व्यंग्य- भाषा के तरकश और तीरों की विशेषता है- "हम डरते हैं। हम डंटे हुए लोग हैं।" यह इसलिए कि तमाम ट्रान्सफरों के बावजूद कुर्सी और अफसर सार्वकालिक हैं। और ऐसे शाश्वत अफसराना व्यक्तित्व के लिए व्यंग्य की यह लड़ी- "वह ऑनड्यूटी सर्वव्यापी है। वह रेडीमेड मसीहा है; एक्टिव शहीद है, फुर्तीला कछुआ है। वह खली में सिर रख मूसलों को अनुशासन में रखता है।" अब काव्यात्मक व्यंग्य उपमानों की खेप कितनी लयात्मक है। कहावत के खंड - खंड तोड़ व्यंग्य- ध्वनि को कितना मारक बना देते हैं। कोई परहेज नहीं; तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी, शब्दों के प्रयोग से।कोई हिचक नहीं, व्यंग्य के लिए मुहावरों- कहावतों के रूपकीय प्रयोग के लिए। इसीलिए एक साधा- हुआ तीर अफसर के समूचे जीवन को उक्ति के एक कैप्सूल में भर देता है-"वह जीता नहीं, जीवन को डील करता है।" ऐसा व्यक्तित्व अपने से, अपनी सांसों से ही छिटका हुआ, केवल प्रशासकीय ताने-बाने में फूंक मारता रहता है।
और व्यंग्य की समाप्ति पर दरवाजे तक आते- आते भी चूकता नहीं है। प्रशासन के इस ईश्वर की अनन्त महिमा के गुणगान की असमर्थता की पुरानी पदावली को समेटते हुए कह जाते हैं- "क्योंकि प्रशासन के ब्रह्म में कार्य-कारण संबंध पहचानता है। उसके साथ रहकर क्या कीजिएगा। वह जहाँ हैं, जितना है, मेरी समझ से काफी है। उसे वहीं रहने दें।" कितनी और कैसी विडम्बना है। दर्शन में जीवात्मा ब्रह्म में शरणागत होना चाहती है। पर प्रशासन के इस ब्रह्म से इस किनारे से उस किनारे की दूरी बनाये रखने में ही खैरियत का एहसास होता है।
माना जाता है कि रचनाओं में लेखक का आंतरिक व्यक्तित्व भी झलकता है। शरद जोशी जिस मासूमियत से अपनी वक्रता को व्यंजित करते हैं, वह उनके चेहरे की मुद्राओं से ही नहीं,शाब्दिक ध्वनियों, शब्द- समुच्चयों, वाक्य संरचना के पैटर्न, मुहावरों-कहावतों की सामयिक व्यंजनाओं, पात्रों की संरचना, स्वकीय वक्र-व्यंजना में हर सिरे से लक्षित की जा सकती है। जो हाजिरजवाबी उनकी बातचीत या संवाद में रही है, वही दृश्यांतरण में छलांग लगाती है। विषय की परिधि में वे सभी मसालों के साथ उतरते हैं, पर अन्यों को लपेटने की छलांग के साथ। तब वाचिक और लिखित की दूरियां सिमट जाती हैं। वाक्य तो इतने छोटे और सधे हुए । जैसे खेत से लौटते हुए नये- नये बैल सींग-धंसाई और छेड़छाड़ करते हुए लौट रहे हों। और व्यंग्य-सूक्तियों के शाकाहारी-से रंग-रोगन में कितना रसायन भरा होता है, यह तो उसके अर्थ- स्फोट से ही पाठक पर सवार हो जाता है। इनमें चरित्र- चित्रण ही नहीं, विडम्बना युक्त कंट्रास्ट ,शब्द- सहचार कील की तरह गड़ जाता है-" मिटटी तो देशी है, सिर्फ सांचा विदेशी है, जिसमें अफसर ढलता है।" अँग्रेजी हुकूमत में विकसित रहा हमारा प्रशासनिक तंत्र विदेशी है, पर अफसर तो देशी है। उसी पर लदा हुआ पर 'साँचा' शब्द ही देशी- विदेशी की गढ़न्त का व्यंजक है।यह भी कि सांचों में यथास्थितिवाद ही कायम रहता है। बिना शोर की प्रतिरोधक ध्वनि और देशी संवेदन युक्त प्रशासनिक ढाँचा न गढ़ पाने की असमर्थता का क्षोभ इसी वक्रता की व्यंजना है। एक वैचारिक प्रतिबोध।मासूमियत, हाजिरजवाबी, क्षोभ और व्यंग्य -वक्रता के बीच मुस्कुराती शरद जोशी की छवि हर व्यंग्य में तैरती नजर आती है। उच्चारण, अनुतान, आरोह-अवरोह, पाठकों से नजर मिलाती संप्रेषणीयता की पांडुलिपि बनी ये रचनाएं कैप्सूल की तरह विस्फोटक मगर लेमिनेटेड कवर की तरह संकर्षित करती हैं।
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