डॉ. क्षमा शर्मा की चुनिंदा बाल कहानियाँ

Dr. Mulla Adam Ali
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Dr. Kshama Sharma, a celebrated Hindi children’s author and Sahitya Akademi Award winner, has beautifully captured the world of imagination and values in her stories. Her collection “Chuninda Bal kahaniyan” reflects cultural roots, moral lessons, and the joy of childhood reading.

Selected Children’s Stories of Dr. Kshama Sharma – A Sahitya Akademi Awarded Collection

क्षमा शर्मा की चुनिंदा बाल कहानियाँ

बच्चों के लिए मूल्य और मनोरंजन से भरा संग्रह

हिंदी बालसाहित्य की प्रख्यात लेखिका डॉ. क्षमा शर्मा को साहित्य अकादमी बालसाहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनकी चुनिंदा बालकहानियाँ बच्चों की जिज्ञासा, संवेदना और भारतीय संस्कृति के मूल्यों को रोचक कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं। यह संकलन न केवल बच्चों को मनोरंजन देता है, बल्कि जल संरक्षण, सहानुभूति और नैतिक मूल्यों जैसे महत्वपूर्ण संदेश भी पहुँचाता है।

डॉ. क्षमा शर्मा की चुनिंदा बाल कहानियाँ 

(साहित्य अकादमी द्वारा बालसाहित्य पुरस्कार से सम्मानित कृति)

      इस बात में बिलकुल सच्चाई है कि जो चीज हमें संघर्ष से मिलती है, उसका अलग ही महत्त्व और आनंद होता है। जब हम संघर्षरत रहते हैं तो कभी-कभी ऐसा लगता अवश्य है कि पता नहीं इस संघर्ष का कब अंत होगा, या होगा या नहीं, लेकिन जब सफलता के द्वार खुलने शुरू हो जाते हैं तो उसके सामने संघर्ष बौना लगने लगता है। लेखन का क्षेत्र भी संघर्ष का पर्याय ही कहा जा सकता है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि आप जितना अधिक पढ़ेंगे, आपके लेखन में उतना ही निखार आएगा। यह भी सच्चाई है कि यह निखार धीरे-धीरे ही आता है, इसलिए बहुत जल्दी सब कुछ प्राप्त करने का प्रयास कभी-कभी निराशा को भी जन्म देता है, इसलिए मेरा मानना है कि धैर्यपूर्वक और सुचिंतित ढंग से किया गया लेखन ही स्थायित्व प्रदान करता है।

      विशेष रूप से बच्चों के लिए लिखे गए साहित्य में उनके प्रति अनुराग का होना बहुत आवश्यक है। मानवीय संवेदना और बदलता परिवेश भी बच्चों के साहित्य में अवश्य प्रतिबिंबित होना चाहिए। आज जब वर्तमान पीढ़ी मीडिया के प्रभाव के कारण पठन संस्कृति से दूर होती जा रही है, ऐसे में बालसाहित्य का सृजन एक ओर चुनौती है तो दूसरी ओर बच्चों को अपसंस्कृति से बचाने का प्रयास भी है।

    डॉ. क्षमा शर्मा एक ऐसी ही रचनाकार हैं जिनकी रचनाओं में एक ओर संघर्ष की विजय होती है तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति और उसके उपादान का चित्रण बच्चों की जिज्ञासाओं के साथ सामने आता है। उनके बाल साहित्य सृजन पर शोध करने वाली डॉ. छाया माली का कहना है कि —”साहित्यकार जीवन का जीवंत यथार्थ साहित्य में रेखांकित करता है। अनेक कृतियों में क्षमा शर्मा का भोगा हुआ संघर्ष भी सामने आता है। बच्चों की बदलती हुई मानसिकता को ध्यान में रखते हुए बड़ा ही प्रासंगिक तथा सोद्देश्यपूर्ण रचनाओं का उन्होंने सृजन किया है। क्षमा शर्मा बाल मनोविज्ञान की कुशल चितेरी रही हैं। सर्जनात्मक बालसाहित्य बालक को मनोवैज्ञानिक दृष्टि देता है, इसलिए साहित्य में परिवर्तित दृष्टिकोण लाना ज़रूरी है।” (बालसाहित्यकार क्षमा शर्मा: पृष्ठ 91-92)

    हिन्दी बाल साहित्य के विस्तृत फलक पर चार दशकों तक फैली हुई क्षमा शर्मा की कुल 10 रचनाओं को संकलित करके पुस्तक ‘क्षमा शर्मा की चुनिंदा बालकहानियाँ’ का प्रकाशन किया गया है। इतने लंबे अंतराल में रचनाकार की लेखनी के विविध रूपों का रसास्वादन ही इस संकलन का मुख्य उद्देश्य है। बच्चों की प्रमुख पत्रिका नंदन के संपादकीय विभाग में कार्य करते हुए अंत में संपादक का उत्तरदायित्त्व निभाते हुए उन्होंने विपुल मात्रा में लेखन कार्य किया है।

    पुस्तक की पहली कहानी ‘कहाँ से आएगा’ में जंगल की एक प्रमुख समस्या जल-संचयन को लेकर पशु-पक्षियों की चिंता को आधार बनाकर बड़े प्रभावशाली ढंग से कथा को विस्तार दिया गया है। गरमी आते ही पूरे जंगल में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच जाती है। हाथी को तो सूरज पर इसीलिए गुस्सा आता है कि वही सारा पानी गटक जाता है, इसीलिए वह सूरज से शिकायत करता है- 

“सूरज दादा यह आपकी सरासर नाइंसाफी है।”

सूरज ने हाथी की तरफ देखा। बोला–” नाइंसाफी ! कैसी नाइंसाफी बेटा?” 

“तुमको प्यास लगती है तो तुम हमारे हिस्से का पानी पी जाते हो!”

“तुम्हारे हिस्से का?” सूरज को बड़ा आश्चर्य हुआ- “वह कैसे?”

“ज्यादा भोले न बनो दादा, सारी नदियाँ सूख चुकी हैं। तालाबों में एक बूँद तक पानी नहीं बचा। कुओं से बाल्टी खाली लौट आती है।”

“तो बेटा मैं क्या करूँ? आजकल मुझे प्यास ही इतनी लगती है। वह तो वश नहीं चलता, नहीं तो मैं पूरा समुद्र ही पी जाऊँ। वैसे तुम नदी और तालाबों से जाकर क्यों नहीं पूछते कि वह तुम्हारे लिए थोड़ा सा पानी बचाकर क्यों नहीं रखते?” (पृष्ठ 5)

सूरज के द्वारा उठाए गए इस सवाल का जवाब जानने के लिए सारे पशु-पक्षियों का समूह झुण्ड बनाकर नदी के पास पहुँच जाते हैं। नदी अपनी असमर्थता व्यक्त करती है कि वह जमीन पर बहती है, आसमान पर नहीं जा सकती है, इसीलिए सूरज मनमानी करते हुए सारा पानी सोख लेता है।

दोनों के अपने -अपने वाजिब तर्क हैं। सूरज अपनी प्रकृति बदल नहीं सकता है और नदी अधिक जल का संचय नहीं कर सकती है। समस्या जहाँ की तहाँ खड़ी है कि आखिर जंगल के जानवर प्रचंड गरमी के दिनों में अपनी प्यास कैसे बुझाएँ? 

     जंगल के सारे जानवरों नीलगाय, लोमड़ी,रीछ आदि के बीच में लोमड़ी एक प्रस्ताव रखती है– “कि क्यों न हम एक ऐसा तालाब खोदें, जिस पर सूरज की नजर ही न पड़े।”

“मगर ऐसा कैसे हो सकता है कि सूरज की नजर ही न पड़े। संसार का ऐसा कौन सा कोना है, जहाँ सूरज की किरणें न पहुँचती हों?”

    जानवरों ने एक स्वर में कहा कि सूरज की पहुँच तो धरती के कोने-कोने पर है। तोता लोमड़ी का मज़ाक़ उड़ाते हुए उसे उपदेश देने वाली कहने लगा। इससे लोमड़ी नाराज होकर जाने लगी। दूसरे जानवरों के मान-मनौव्वल के बाद लोमड़ी ने रूककर अपनी योजना को विस्तार देते हुए बताया कि तालाब खोदने के बाद नदी से एक नाला तालाब तक खोद दें।

     रीछ ने लोमड़ी की बात काटते हुए बताया कि नदी में तो इस समय पानी ही नहीं है। लोमड़ी ने फिर अपनी बात रखी–” तो भी चिंता की कोई बात नहीं, कुछ दिनों बाद बारिश होने वाली है। हम नीची जगह पर तालाब खोदेंगे जिससे कि बारिश का सारा पानी उसमें भर जाएगा।” (पृष्ठ 9)

   जंगल में जानवरों के इतने तर्क-वितर्क थे कि तालाब खोदने की योजना पर पानी फिरता नजर आ रहा था, लेकिन लोमड़ी ने सभी को काटते हुए अपनी योजना को तर्कसंगत सिद्ध कर दिया। काफी जद्दोजहद और विचार-विमर्श के बाद अंतिम रूप से तालाब खोदने पर मुहर लग गई—-” तालाब हम ऐसी जगह खोदेंगे जहाँ घने पेड़ हों, सूरज की किरणें कम आती हों। कम गर्मी होगी तो पानी भी भाप बनकर नहीं उड़ेगा बस।” (पृष्ठ 9)

    इस कहानी का प्रकाशन आज से 37 वर्षों पूर्व सन् 1988 में हुआ था। इस कहानी में पानी के संकट से जूझते हुए जंगल के जानवरों के बहाने मानव को भी जलसंरक्षण के लिए प्रेरित किया गया है। लगभग चार दशकों में पानी का संकट और अधिक गहरा गया है। जलस्तर हर वर्ष घटता जा रहा है। जलस्रोत की लगातार कमी होती जा रही है। जंगल के जानवरों ने तो जलसंचय का उपाय खोज लिया था, लेकिन मनुष्यों के लिए यह आज भी चुनौती है कि कैसे अधिक से अधिक जलसंचय किया जा सके।

क्षमा शर्मा की बाल कहानियाँ

   अगली रचना ‘बदल गया रास्ता’ दो सगे भाइयों राम और श्याम की कहानी है। श्याम अपने बड़े भाई राम का भी बस्ता लेकर इसलिए स्कूल जाता था कि राम पैर से विकलांग था। उसे कोई तकलीफ़ न हो इसलिए श्याम हमेशा साए की तरह उसके पीछे-पीछे लगा रहता था। रास्ते में एक दिन स्कूल जाते हुए राम और श्याम को शरारती बच्चों ने छेड़ दिया और उसका बस्ता लेकर भाग ग‌ए। अगले दिन उनके पिताजी बच्चों को छोड़ने स्कूल गए, लेकिन वे भी कब तक बच्चों को छोड़ने जाते। उन्हें अपनी नौकरी भी तो करनी थी।

     बाद में दोनों बच्चों ने तय किया कि वे अब रास्ता बदलकर स्कूल जाया करेंगे ताकि शरारती बच्चों से उनकी मुलाकात ही न हो। कुछ दिनों तक तो ऐसा चला, मगर एक दिन शैतान बच्चों ने बदले हुए रास्ते पर भी आकर फिर उन्हें छेड़ने लगे। रोज़ -रोज़ इनसे तंग आकर एक दिन श्याम ने शरारती बच्चों से निपटने का मार्ग ढूँढ़ लिया। उसने अखाड़े के बलराम गुरू को अपनी समस्या बताकर उनसे मदद करने का आश्वासन ले लिया।

    अगले दिन बलराम गुरू के भेजे शिष्यों ने उन शरारती बच्चों को ऐसी खबर ली कि उन्होंने हमेशा के लिए राम और श्याम को छेड़ने से तौबा कर ली। उसके बाद से ही श्याम की धाक जम गई, लेकिन उसने इसका दुरुपयोग करना शुरु कर दिया। यह बात बड़े भाई राम को अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन जब श्याम को स्कूल में इनाम मिला तो राम को आंतरिक खुशी तो हुई लेकिन उसने इसे व्यक्त नहीं किया। बाद में घर पर माँ के पूछने पर उसने अपने मन की बात बता दी— 

“वह (श्याम) इनाम जीतता है तो मेरी आँखें खुशी से भर आती हैं, लेकिन कल तक वह मुझे बचाने के उपाय सोचता था। पर आज जैसे वे शैतान लड़के हमें तंग करते थे, वह भी अपने से छोटों को सताता है, और माँ यह सब मेरे कारण हुआ है। न मैं ऐसा होता न..” कहते कहते राम फूट-फूट कर रोने लगा। (पृष्ठ 14)

   श्याम ने दूसरे कमरे से राम की यह बात सुन ली थी। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने बड़े भाई से अपनी ग़लती के लिए माफी माँग ली। 

    संग्रह की अगली कहानी ‘छोटी बहन’ में शिब्बू पहलवान का बहन के प्रति जरूरत से ज्यादा प्यार दिखाया गया है जिसका परिणाम यह है कि बहन पूरी तरह अपने भाई पर ही आश्रित हो गई है। वह अपनी सहेलियों के साथ स्कूल से पैदल ही आना चाहती थी, लेकिन शिब्बू पहलवान उसे कंधे पर बिठाकर घर ले आते थे। यहाँ तक की उसे भेड़िया से बचाने के लिए रस्सी से उसका पैर चारपाई से बाँध देते हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य यह है कि बच्चों को जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार देने पर उनके बिगड़ने की संभावना बढ़ जाती है। उन्हें उतना ही लाड़ -प्यार देना चाहिए जितनी माँग हो। इस दृष्टि से यह कहानी महत्त्वपूर्ण बन गई है।

   ‘पप्पू चला ढूँढ़ने शेर’ कहानी में पप्पू शेर खोजने के उद्देश्य से जंगल में पहुँचा ही था कि उसके पैर में काँटा गड़ गया। उसे अपनी मम्मी की याद आई जो काँटा गड़ने पर आसानी से सेफ्टी पिन से निकाल देती थीं। खैर तभी बड़ की शाखा से एक सेफ्टी पिन गिरी, जिसकी सहायता से उसने काँटा निकाल लिया।

    वह शेर को खोजने के लिए आगे बढ़ा ही था कि उसे एक बिल्ली दिखाई दी। उसके पापा ने बताया था कि बिल्ली शेर की मौसी होती है। वह बिल्ली से शेर के बारे में पूछ ही रहा था कि बिल्ली झाड़ियों में गायब हो गई। उसे अपनी किताब से पता चला कि शेर एक गुफा में रहता था, लेकिन गुफा का रास्ता कैसे पता चले? तभी किताब पलटते ही उसने देखा कि शेर रात में पानी पीने नदी की तरफ जाता है।

    उसने नदी की तरफ दौड़ लगा दी। रास्ते में उसे एक गधा मिला। उसने पप्पू को देखते ही भागना शुरू कर दिया। अब पप्पू को अपने ऊपर ही गुस्सा आ रहा था कि उसने किताब के सहारे क्यों शेर को ढूँढ़ने का निश्चय किया था। आगे उसकी मुलाकात एक काले मुँह वाले लंगूर से होती है। लंगूर ने पप्पू से पूछा –

“अरे बच्चे! अकेले इस जंगल में क्या कर रहे हो?”

“मुझे शेर ढूँढ़ना है।” 

“शेर” लंगूर हँसने लगा “क्यों भई, तुम्हें शेर ढूँढ़ने की क्या जरुरत आ पड़ी, क्या शिकार करोगे?” “शिकार” पप्पू हँसने लगा- “नहीं, नहीं मैं तो बस शेर को देखने आया था कि असली का शेर किताब जैसा होता है या नहीं।” 

“किताब में शेर? मुझे दिखाओ किताब का शेर। मैंने आज तक नहीं देखा। असली शेर तो मैंने बहुत देखे हैं। पहले इस जंगल में बहुत से शेर थे।”

“तो अब तुम यहाँ बैठकर शेर के आने का इंतजार करोगे?” लंगूर ने पूछा। 

“हाँ, अगर शेर नहीं आया तो, क्या पता उसे आज प्यास न लगे?”

लंगूर ने पप्पू को ध्यान से देखा–” तुम सच कह रहे हो शेर नहीं आएगा। मगर इसलिए नहीं कि उसे प्यास नहीं लगी।

“तो फिर क्यों नहीं?”

“इसलिए कि इस जंगल में एक ही शेर बचा था, उसे भी चिड़ियाघर वाले पड़कर ले गए।” (पृष्ठ 23)

   पप्पू को यह जानकर बहुत दुख हुआ कि जिस शेर को देखने वह जंगल में आया था, उसे चिड़ियाघर वाले पहले ही पकड़कर ले जा चुके हैं।

    कहानी ‘गाय ने पुकारा’ किशनपुर के सरपंच रामपाल और सुमेरपुर के सरपंच केशवचन्द्र के स्वाभिमान से जुड़ी हुई है। केशवचन्द्र ने अपने गाँव के पहलवान रामकुमार की तारीफ करते हुए रामपाल से कह दिया कि–’इस जैसा पहलवान आसपास के गाँव में तो क्या, दूर-दूर तक नहीं मिल सकता।’

     बस यही बात रामपाल को खल गई और उन्होंने किशनपुर में अखाड़ा खोलकर शिव नामक पहलवान को तैयार किया और एक दिन दंगल के बहाने पहलवान रामकुमार को शिव के साथ कुश्ती लड़ने के लिए आमंत्रित किया। इस कुश्ती में शिव ने रामकुमार को पछाड़ दिया। रामपाल ने शिव की पीठ थपथपाई और उसे कुछ भी माँगने के लिए आमंत्रित किया। पहले तो शिव ने आनाकानी की, बाद में रामपाल के बार-बार कहने पर उसने उनसे छोटी बछिया माँग ली। शिव बछिया को लेकर इतना संवेदनशील हो गया कि जहाँ भी जाता, उस बछिया को साथ ले जाता था। उसने बछिया का नाम गुलाबो रख दिया था।

     एक दिन शिव को बहुत जरूरी काम से ऐसी जगह जाना पड़ा, जहाँ वह गुलाबो को नहीं ले जा सकता था। शिव जब वापस लौटा तो पता चला कि कोई गुलाबो को खूँटे से खोल ले गया है। शिव मन ही मन बहुत परेशान हुआ। उड़ती-उड़ती यह खबर सरपंच तक भी पहुँच गई। एक दिन सरपंच रामपाल ने शिव को बुलाया और उसे अपने मित्र सुमेरपुर के सरपंच केशवचन्द्र के पास दवाइयाँ पहुँचाने का काम सौंप दिया।

    शिव सरपंच को दवाइयाँ सौंपकर वापस लौट रहा था तभी उसकी भेंट दरवाजे पर खड़े रामकुमार से हो गई। शिव और रामकुमार की जोर -जोर से बातें होने लगीं, तभी अंदर से गाय के रँभाने की आवाज़ आई। बार-बार आ रही आवाज को सुनकर शिव को आभास हो गया कि यह आवाज तो गुलाबो की ही है। शिव उसी ओर दौड़ पड़ा जिधर से आवाज़ आ रही थी। यह गुलाबो ही थी,जिसने शिव की आवाज़ पहचानकर रँभाना शुरू कर दिया था।

   रामकुमार की चोरी पकड़ी गई थी। उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू गिरने लगे—” माफ करना शिव। मेरे मन में पाप आ गया था। सोचता था कि जब तक यह गाय तुम्हारे साथ रहेगी, तब तक कभी तुम्हें हरा नहीं सकूँगा। इसीलिए मैं इसे चुरा लाया। मगर जब से यह यहाँ आई है, इसने चारे को मुँह तक नहीं लगाया। आज तुम्हें यहाँ देखकर मैं चौंका जरूर था कि तुम यहाँ कैसे? लेकिन फिर मैंने सोचा कि तुम्हें पता कैसे चलेगा कि गाय कहाँ है। मगर तुम्हारी आवाज सुनकर यह तुम्हें पुकारने लगेगी, इसका तो मुझे अंदाजा तक नहीं था। ले जाओ भाई अपनी गाय और मुझे भी माफ कर देना।” (पृष्ठ 29)

     जानवरों के प्रति प्रेम को लेकर लिखी गई यह कहानी सन् 1997 में प्रकाशित हुई थी।

   ‘पेड़ पर स्कूल’ कहानी मीनू, उसकी माँ और दीपा मौसी को लेकर बुनी गई है। मीनू की माँ उससे अधिक बात नहीं करती थी, इसलिए वह अपने ही काम में मशगूल रहती थी। एक दिन दीपा मौसी घर पर मिलने आईं तो माँ उन्हें घेरकर बैठ गईं। मीनू भी दीपा मौसी से बात करना चाहती थी , लेकिन जब माँ ने उसे अवसर ही नहीं दिया तो वह रुँआसी होकर कहने लगी कि न तो तुम मुझसे बात करती और न ही मौसी से बात करने देती हो।

दीपा मौसी बात को समझ गईं, इसीलिए उन्होंने कहा—’उषा तुम चुप रहो। अब मैं अपनी प्यारी बिटिया मीनू से बात करूँगी।आओ मीनू पास आकर मेरी गोद में बैठो।’

मीनू खुशी-खुशी मौसी से बात करने लगी। मौसी उससे पढ़ाई -लिखाई की बात करते -करते मज़ाक पर उतर आईं। दीपा मौसी और मीनू की बातचीत के कुछ मनोरंजक अंश इस प्रकार हैं —

“तो क्या तुम कमरे में बैठकर पढ़ती हो?” मौसी ने पूछा। 

मीनू सोच में पड़ गई कि मौसी को आखिर हो क्या गया है? फिर बोली– “क्यों मौसी, क्या आप कमरे में नहीं पढ़ती थीं?”

“नहीं मैं तो पेड़ पर बैठकर पढ़ती थी।” मौसी बोलीं 

“पेड़ पर कैसे भला?” उसे आश्चर्य हुआ। 

“ऐसे कि नीचे मास्टर जी होते थे। ऊपर मैं बैठी होती थी। बस जो काम किया स्लेट को रस्सी में बाँधकर नीचे लटका दिया। मास्टर जी ने उसे देखा,फिर ऊपर खींच लिया। अब मास्टर जी पेड़ पर तो चढ़ नहीं सकते थे, इसलिए गलती भी करती तो सजा न मिलती।” (पृष्ठ 34)

ऐसी बातें सुनकर मीनू की माँ बोल पड़ी—बस दीपा। खूब बुद्धू बना लिया लड़की को। अब सब हँसने लगे थे। मीनू समझ गई कि मौसी मज़ाक कर रही थीं।

   ‘इंजन चले साथ-साथ’ कहानी में लंबे समय से एक ही जगह पर खड़े रेलवे के पुराने इंजन को रजनी और सोमेश अपने दोस्तों बंटू और नीरज के साथ मिलकर झाड़-पोंछकर चमका देते हैं। इसी खुशी में वे स्वतंत्रता दिवस का उत्सव उसी परिसर में मनाते हैं जिसमें इंजन लंबे समय से खड़ा हुआ था। इस अवसर पर स्टेशन मास्टर चाचा,गार्ड अंकल, बाबूजी और उनके अन्य साथी भी इकट्ठे होते हैं। साफ-सुथरे इंजन को देखकर स्टेशन मास्टर चाचा और दूसरे लोग एक स्वर में बोल पड़े—” वाह बच्चों इस कबाड़ा इंजन को इतना अच्छा रूप बस तुम ही दे सकते थे। आज से यह इंजन तुम्हारा हुआ, जितना चाहे यहाँ खेलो।”

    सब बच्चे बहुत प्रसन्न थे कि तभी सोमेश ने रजनी से कहा कि मुझे यहाँ पर माँ की कमी खल रही है। सोमेश जल्दी से जाकर माँ को साइकिल पर बिठाकर ले आया। सभी ने बड़े उत्साह से मिलजुलकर स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाया था।

    ‘तितली की सहेली’ कहानी में तितली फूलों के आकर्षण में इधर-उधर भटक रही थी, तभी उसकी नज़र सुर्ख गुलाब पर पड़ी। वह उस फूल पर बैठना चाहती थी, तभी उसका पंख नुकीले काँटे में फँस गया। बड़ी मुश्किल से तितली ने काँटे से अपने को अलग किया, लेकिन यह क्या उसका तो पंख ही टूट गया। तितली परेशान थी कि अब वह कैसे उड़ेगी?

     एक तोता तितली की उदासी समझकर उसके पास गया और उसने उसे मोर से रंग-बिरंगे पंख लेने की सलाह दी। तितली को यह सलाह पसंद आई और वह तुरंत मोर के पास पहुँच गई। मोर ने उसे फौरन अपने पंख तो दे दिए, लेकिन इतने बड़े पंख वह लगाए कैसे? वह पंख लेकर मधुमक्खी के छत्ते के पास गई, मधुमक्खी ने शहद की सहायता से उसे चिपका तो दिया लेकिन शहद के आकर्षण में चींटियों ने उसे परेशान कर दिया। वह दौड़ते-दौड़ते थककर गिर पड़ी, तभी नन्हीं बच्ची मिली की नजर उस पर पड़ी।

    मिली ने उसे सहारा दिया। धीरे-धीरे दोनों सहेली बन गईं। तितली जब ठीक हो गई तो उड़कर वहाँ से जाने का फ़ैसला किया, लेकिन मिली की याद आते ही उसने हमेशा के लिए उसके बगीचे में रहने का फैसला कर लिया।

     ‘हरा सूरज’ कहानी में बच्चों की अलग-अलग कल्पनाओं में जो प्रतिबिंब उभरकर सामने आता है, उन्होंने उसे ही बिना लाग-लपेट के अपनी-अपनी कॉपियों में बनाया था। टीचर के पूछने पर सबने अपने-अपने तर्क भी दिए। लेकिन हरा रंग का सूरज बनाने वाले बच्चे ने जो तर्क दिया उससे टीचर बहुत प्रभावित हुईं—-

“इसलिए मैम कि अगर सूरज हरा हो गया तो इतना बड़ा पेड़ हो जाएगा कि चारों तरफ छाया ही छाया हो जाएगी।”

“तब गरमी नहीं लगेगी, आइसक्रीम भी जल्दी नहीं पिघलेगी। आते- जाते इतना भारी बस्ता उठाए पसीना भी नहीं आया करेगा।” (पृष्ठ 50-51)

अंतिम कहानी ‘बस्ते’ तो सही अर्थों में गप्प कथा है। स्कूल से लौटकर वापस आते हुए बच्चों के कंधे पर लटके हुए बस्ते कूदकर भागने लगते हैं। आगे-आगे बस्ते और उनके पीछे-पीछे भागते बच्चे, एक विहंगम दृश्य। बच्चे जैसेहि बस्तों को पकड़ने के लिए आगे हाथ बढ़ाते बस्ते कारों के ऊपर पहुँच जाते थे। कारवाले भी इस दृश्य को देखकर डर ग‌ए—-

“अब हुआ यह कि चाहे वह नीम का पेड़ था, आम या कचनार का, चंपा और अमरूद का अथवा खट्टी इमली का ही, जिस पर देखो उस पर एक से एक बस्ते झंडियों की तरह लहरा रहे थे। कोई लाल था, कोई नीला, कोई पीला, कोई ब्राउन तो कोई सफेद। यही नहीं किसी पर स्पाइडरमैन कूद रहा था, कोई बैटमैन से सजा था, किसी पर मिकी- माउस बड़े-बड़े कानों को हिला रहा था।” (पृष्ठ 53) 

    अब बच्चों के सामने समस्या थी कि बिना बस्ता और किताब-कापियों को लिए घर कैसे जाएँ? उन्हें रामू अंकल की याद आई, जो सोसायटी के चौकीदार थे। बच्चे दौड़कर रामू अंकल के पास गए, मगर वे तो गहरी नींद में सो रहे थे। बच्चों ने किसी तरह उन्हें जगाया। जागते ही उनकी नजर बच्चों पर ग‌ई- 

“क्या बात है, बच्चो कोई तुम्हें परेशान कर रहा है?”

कहते हुए उनका हाथ अपनी लाठी पर चला गया, दूसरे हाथ से उन्होंने अपनी पगड़ी सँभाल ली। “कौन तंग कर रहा है?”

 बच्चों को अपनी बात कहने में परेशानी हुई। फिर हिम्मत करके बोले– “अंकल बस्ते।”

और इसके साथ ही कहानी समाप्त हो जाती है। इसमें जिज्ञासा बनी हुई है कि आखिर आगे क्या हुआ, क्या बच्चों की समस्याओं का समाधान हुआ? रामू अंकल को पूरी बात पता चली, अगर पता चली तो उन्होंने उसका क्या समाधान निकाला?

     ऐसे तमाम तरह के प्रश्नों को समेटे हुए कहानी और विस्तार की माँग करती है। हालांकि यह भी कहानी का कौशल है कि ऐसे प्रश्न बच्चों के लिए छोड़ दिए जाते हैं ताकि वे आपस में विचार-विमर्श करके उसका समाधान निकालें। इसीलिए मैं इसे गप्प कथा ही मानता हूँ।

पुस्तक का आवरण बहुत ही मनमोहक है। बच्ची की उँगली पर बैठी हुई तितली और हँसती हुई मुद्रा में उससे वार्तालाप चित्रकार मित्रारुण हलधर की कूँची और रंगों से सुसज्जित अद्भुत कल्पना है।

© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम

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