डॉ. श्रीप्रसाद की चुनिंदा बाल कहानियाँ

Dr. Mulla Adam Ali
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Dr. Shriprasad’s Selected Children’s Stories bring together timeless tales filled with fun, learning, and moral values. These stories not only entertain young readers but also inspire them with lessons of honesty, empathy, and wisdom.

Dr. Shriprasad’s Selected Children’s Stories

डॉ. श्रीप्रसाद की चुनिंदा बालकहानियाँ

Dr. Shriprasad Kee Chuninda Bal Kahaniyan

यह संग्रह “डॉ. श्रीप्रसाद की चुनिंदा बालकहानियाँ” हिंदी बालसाहित्य की समृद्ध परंपरा को नई पीढ़ी तक पहुँचाने वाला उत्कृष्ट संकलन है। इसमें बच्चों के जीवन, खेल-खेल में सीख और नैतिक मूल्यों को सरल व रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ईमानदारी, सह-अनुभूति, शिक्षा और सामाजिक सरोकारों पर आधारित ये कहानियाँ न सिर्फ मनोरंजन करती हैं, बल्कि बच्चों के चरित्र निर्माण में भी सहायक सिद्ध होती हैं।

हिंदी बाल साहित्य का अनमोल खजाना

डॉ. श्रीप्रसाद की चुनिंदा बालकहानियाँ

    स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी बाल साहित्य में विशेष बदलाव देखने को मिलता है। उस समय धीरे-धीरे बच्चों की पत्र-पत्रिकाओं में लिखने के लिए रचनाकारों में ऐसा उत्साह देखने को मिलता है, जैसा पहले नहीं था। सन् 1917 से प्रकाशित बाल सखा पत्रिका अपने उत्कर्ष पर थी, और उसके द्वारा बनाए गए बाल साहित्यकारों की एक पूरी टीम तैयार हो चुकी थी। बाल साहित्य की पुस्तकें भी छपकर बच्चों तक पहुँच रही थीं। सातवें दशक तक आते-आते हिन्दी बालसाहित्य में शोध और समीक्षा की भी विधिवत शुरुआत हुई। उस समय तक श्रीप्रसाद जी की रचनाएँ प्रमुखता से तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने बालसाहित्य में ही शोध कार्य करने का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप उन्हें ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि प्राप्त हुई, और कालांतर में उनका शोध प्रबंध 'हिन्दी बालसाहित्य की रूपरेखा' शीर्षक से लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इसकी माँग को देखते हुए कुछ समय पूर्व यह प्रबंध पुनः न‌ई साज-सज्जा के साथ प्रकाशित हुआ है।

    डॉ. श्रीप्रसाद ने प्रभूत मात्रा और गुणवत्ता के साथ बाल साहित्य सृजन किया है। उनके द्वारा सृजित बच्चों की कविताओं, शिशुगीतों, पहेलीगीतों और कहानियों की संख्या हजारों में है। उन्होंने लगातार क‌ई दशकों तक लिखकर बच्चों के बीच में अपनी महत्त्वपूर्ण पहचान बनाई है। एनसीईआरटी सहित विभिन्न राज्यों की पाठ्यपुस्तकों में आज भी उनकी रचनाएँ पढ़ाई जाती हैं। इस लंबे दौर में लिखी गई उनकी आठ रचनाएँ ‘डॉ. श्रीप्रसाद की चुनिंदा बालकहानियाँ’ शीर्षक से राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित हुई हैं। ये कहानियाँ लेखक के लंबे अनुभव का दस्तावेज़ भी कहीं जा सकती हैं।

    संग्रह की पहली कहानी मेला गाँव के चार बच्चों –ओमनिधि, भवतोष, जगन और अजीत को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। यह उस दौर की कहानी है जब बच्चों में मेला देखने का एक अलग ही आकर्षण हुआ करता था। उस समय मनोरंजन के साधन बहुत सीमित थे, और मेला भी लंबी प्रतीक्षा के बाद ही लगता था। घर-परिवार में भी आय के साधन अधिक नहीं थे, इसलिए बच्चों को मेला देखने के लिए बहुत सीमित पैसे मिलते थे। ऐसे में चारों बच्चे अपने -अपने परिवारों से थोड़े-थोड़े पैसे पाकर सामूहिक रूप से मेरा देखने का कार्यक्रम बनाते हैं। किसी को दस रुपए तो किसी को पन्द्रह रुपए मेले में ख़र्च करने के लिए मिलते हैं। मेले में जाते हुए इन बच्चों की खुशी देखने लायक थी। कहानीकार ने गाँव का वह परिवेश और बच्चों की खुशी का वर्णन इस प्रकार किया है--” जब चारों मेला देखने चले तो बहुत ही खुश थे। एक तो मेला देखने की खुशी, दूसरे घूमने का मज़ा। जैसे हिरन भागते हैं, वैसे ही चारों गाँव से भागते और उछलते कूदते चले। गाँव खत्म होते ही खेत शुरू हो ग‌ए। चारों ओर हरियाली ही हरियाली। बाजरा और ज्वार के खेत कट चुके थे। चैत की फसल के लिए किसान खेत जोत रहे थे। गेहूँ, जौ, चना और सरसों बोनी थी। अरहर तो बाजरे के साथ ही बो दी गई थी। अरहर के पेड़ बड़े-बड़े हो रहे थे।” (पृष्ठ 7)

      मेला घूमने जाते हुए चारों बच्चे रास्ते में पहले बेर के पेड़ से बेर तोड़कर खाते हैं। अभी वे सब थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि उन्होंने देखा कि ‘पुर’ चलाकर खेतों की सिंचाई की जा रही है। गाँवों में कहीं-कहीं इसे ‘रहट’ भी कहा जाता है। बीस बाल्टियों वाला यह पुर बैल आराम से खींच रहे थे। उन्होंने पुर से ठंडा पानी पीने का निश्चय किया। तभी पुर के मालिक ने उन्हें गुड़ देकर उसे खाने के बाद ही पानी पीने का मशविरा दिया। सभी ने गुड़ खाने के बाद पानी पिया और आगे की राह ले ली।

    मेला अभी दूर था। रास्ते में ही उन्हें अंधा कुँआ मिला। गाँव में जिस कुँए का पानी सूख जाता है, उसे अंधा कुँआ कहते हैं। मेला पहुँचने के ठीक पहले उन्हें ईख (गन्ना) का खेत मिला। उनकी इच्छा हुई कि इस गन्ने के खेत से चुपचाप चोरी से गन्ना तोड़कर चूसा जाए। यहाँ पर उनका आपस का संवाद बड़ा महत्त्वपूर्ण है, जिसे कहानीकार ने ईमानदारी के नमूने के रूप में प्रस्तुत किया है —

“खेत के मालिक ने देख लिया तो हम सब लोग पिट जाएँगे।” ओमनिधि बोला। 

“हम लोग खेत के मालिक से गन्ना माँग लें।” अजीत बोला। 

“हाँ, यह ठीक रहेगा।” भवतोष ने भी हामी भरी। 

“बिना माँगे कोई चीज लेना तो चोरी है। हम लोगों को चोरी नहीं करनी चाहिए।” (पृष्ठ 8)

     यह संवाद बच्चों की सोच का एक उत्कृष्ट नमूना है, जिसमें बच्चों का चोरी न करने का संकल्प उनकी आगामी प्रगति के रास्ते का खुलासा कर रहा है।

    संयोग से बच्चों की आपसी बातचीत गन्ने के मालिक ने सुन ली, जो खेत के अंदर ही अपना काम कर रहा था। उसने बाहर आकर खुशी-खुशी चारों बच्चों को स्वयं गन्ना तोड़कर दिया और उनकी ईमानदारी से प्रभावित होकर सीजन आने पर उन्हें गन्ने का रस पीने के लिए भी आमंत्रित किया।

    अब मेला आने ही वाला था। लाउडस्पीकर से गाने की आवाजें सुनाई दे रही थीं। मेला पहुँचकर सबसे पहले सभी ने जलेबी खाने का निर्णय लिया। जलेबी खाकर सभी ने अपने-अपने पैसे दिए, तभी अजीत को अपने पैंट की जेबें खाली मिलीं। उसने घर से मिले दस रुपए का नोट अपनी जेब में ही रखा था। वह रुआँसा हो गया, तभी जगन ने अपने पैसों से तीन रुपए अजीत को दे दिए, जगन की देखा-देखी ओमनिधि और भवतोष ने भी थोड़े-थोड़े पैसे देकर अजीत की मदद की। फिर सभी ने मेले में घूम-घूमकर खरीददारी की, और शाम होते-होते अपने-अपने घरों को वापस आ गए।

    कहानीकार ने इसका समापन इतने ख़ूबसूरत अंदाज में किया है कि उससे पूरी कहानी प्रेरणादायी हो गई है —-”सब बड़े खुश थे। इस बात से और भी ज्यादा खुश थे कि सबने अपने-अपने रुपयों में से अजीत को भी दिए, जिससे उसने भी मेले का भरपूर आनंद उठाया। सबने अजीत के साथ ऐसा व्यवहार भी किया कि उसने यह अनुभव ही नहीं किया कि वह दूसरे का पैसा खर्च कर रहा है। उसे यही लगा कि वह उसका अपना ही पैसा है।” (पृष्ठ 10)

    संग्रह की अगली कहानी में राजकुमार जयवर्धन राजा श्रीमतवर्धन का पुत्र था। उसकी परवरिश राजसी वैभव के बीच में शानदार ढंग से हो रही थी, लेकिन उसका अकेलापन उसे बार-बार खटकता था। महल के बाहर खुलकर खेलते-कूदते बच्चों को देखता था तो उसका मन भी इन बच्चों के साथ खेलने और मौज़मस्ती करने का होता था। उसके शिक्षक-गुरू उसे शिक्षा देने महल में आते थे, लेकिन अकेले उसका मन नहीं लगता था। एक दिन उसने अपने मन की बात रानी माँ से बताई तो रानी ने उसे सांत्वना देने के लहजे से कहा कि—तू तो राजकुमार है और कोई राजकुमार ही तेरे साथ खेल सकता है। गाँव में तो कोई राजकुमार है नहीं जो तेरे साथ खेले।

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    धीरे-धीरे रानी के माध्यम से यह बात राजा तक पहुँच गई। राजा ने रानी को समझाया कि राजकुमार किले के नियम नहीं जानता है। वह बच्चा है तुम उसे समझाओ कि आगे से वह ऐसी बातें न करें। माँ के बार-बार समझाने पर भी राजकुमार उदास रहता था। अंत में बहुत सोच-विचार के बाद राजा ने उसे महल के बाहर जाकर सामान्य बच्चों के साथ खेलने की न केवल अनुमति दी, बल्कि बाहर के बच्चों को भी महल में अंदर आकर खेलने के लिए खुली छूट दे दी। इसका परिणाम बहुत सुखद रहा। राजकुमार अपने समवयस्क बच्चों के साथ खूब खेलता और हँसी-मज़ाक करता। उसके विचारों में ऐसा बदलाव आया कि उसने दिशा ही बदल दी—-

     “गाँव के लोग बताते हैं कि जब राजकुमार बड़ा होकर राजा बना तो उसने अपनी प्रजा के लिए अनेक अच्छे काम किए। जयवर्धन सरोवर उसी जमाने का है और जयवर्धन बालविद्यालय उसी राजा के नाम पर है, और फिर उसका नाम तो बड़े-बूढ़ों की ज़बान पर है। बड़े बूढ़े- इस बात को लड़कों को बताते हैं और लड़के इस बात को सोचकर खुश होते हैं कि उनके गाँव में एक राजकुमार ऐसा भी हुआ था।” (पृष्ठ 17)

     ‘पढ़ाई’ जैसाकि शीर्षक से ही स्पष्ट है – यह शिक्षा व्यवस्था के साथ -साथ शिक्षण संस्थानों का भी कच्चा-चिट्ठा खोलती एक सशक्त कहानी है। जिस विद्यालय में विद्यार्थियों के लिए समुचित रूप से पीने का स्वच्छ पानी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हो, और बात-बात में गुस्सैल अध्यापिकाओं से सामना हो, समय से कक्षाएँ न चलती हों, उस विद्यालय से आप स्वच्छ वातावरण और अच्छे परिणाम की कल्पना कैसे कर सकते हैं? हालांकि जिस सरकारी विद्यालय को लेकर इस कहानी का ताना-बाना बुना गया है, अब न तो सब ऐसे विद्यालय हैं और न ही सब अध्यापक-अध्यापाकाएँ। हाँ, अभी भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो गया है। कुछ सुधार अवश्य हुआ है और भविष्य में और अधिक सुधार होने की संभावना भी हो सकती है।

      प्रमिला,मंजरी, यामिनी और शकीला को जब विद्यालय में पानी की टोंटियाँ सूखी मिलती हैं तो वे क्लासटीचर से इसकी शिकायत करती हैं तो वे इसका समाधान निकालने के बजाय विद्यार्थियों को प्रिंसिपल के पास भेज देती हैं। पानी जैसी आवश्यक चीज के लिए विद्यार्थियों का इधर-उधर भटकना कम चिंता की बात नहीं है। तमाम जद्दोजहद के बाद विद्यार्थियों को पानी उपलब्ध होता है, तब उनके जान में जान आती है। सरकारी विद्यालय की यह दशा हमारी चिंता से भी जुड़ी हुई है- ”यह सरकारी कॉलेज है, राजकीय कॉलेज। लेकिन कितनी बुरी दशा है कॉलेज की। सारी मैडमें अपना कर्तव्य भूल गई हैं। लड़कों के राजकीय कॉलेज में ट्यूशन के लिए लड़कों को मजबूर किया जाता है और लड़कियों के राजकीय कॉलेज में मैडम पढ़ाना नहीं चाहतीं, इसीलिए तो दोनों कॉलेजों का परीक्षाफल खराब आता है।” (पृष्ठ 25)

      ‘मैं बारात में था’ कहानी में गाँव की बारात का जो चित्र खींचा गया है, उस व्यवस्था/अव्यवस्था से इनकार नहीं किया जा सकता है। जैसे -तैसे झुन्नी दादा की शादी तय तो हो ग‌ई, लेकिन शादी संपन्न होने में इतनी अड़चनें आईं कि पूछो मत। शादी की कल्पना से मन ही मन ऐसे लड्डू फूटते हैं जैसे इस कहानी में आई कविता में फूट रहे हैं —

दूल्हा भूला राह एक दिन, पहुँचा नहीं ससुर के घर। 

रात हुई तो दौड़ पड़े सब, उसे खोजने इधर-उधर। 

खोजबीन की सबने काफी, दूल्हा आखिर उन्हें मिला। 

रोया था वह काफी ज्यादा, अब चेहरा था खिला-खिला। 

ब्याह हो गया फिर दूल्हे का, दुल्हन अच्छी आई थी। 

दूल्हे ने अपनी शादी में, एक साइकिल पाई थी।

     झुन्नी दादा की शादी में उनके पिताजी की ठसक देखने लायक है। दूल्हे के पिताजी के रोल में वे इसलिए हल्के नजर आते हैं कि पहले से तय सीमा से अधिक बाराती ले जाकर वे लड़की वालों के सामने समस्या खड़ी कर देते हैं। बारात के लिए बीमार घोड़े का सौदा भी उन्हें कटघरे में खड़ा करता है। उधर बाराती भी मिठाई और नमकीन की प्लेट गायब करके तथा पूड़ियों को दरी के नीचे छुपाकर कम उपद्रव नहीं करते हैं। रही सही कसर तब पूरी हो जाती है जब झुन्नी के पिताजी दहेज के लिए लड़की वालों को खूब परेशान करते हैं।

      अच्छी बात यह रही कि तमाम जद्दोजहद के साथ -साथ शादी की रस्में निपट जाती हैं और बारात बिदा होकर सकुशल घर वापस आ जाती है लेकिन एक सवाल तो छोड़ ही जाती है कि बारातियों ने नहाने का साबुन,तेल और जूते जिस ढंग से बाक्स में रखकर ले आए ग‌ए, वह किसी भी कीमत पर एक सच्चे इंसान के रूप में क्षम्य नहीं कहा जा सकता है।

    ‘रुनू रूठी है’ कहानी बालमनोविज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण है। कहानी पढ़ते हुए प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी की तस्वीर बार बार मन-मस्तिष्क में कौंधने लगती है। बच्चे घर-परिवार में जो कुछ भी देखते-सुनते हैं, उसका असर उनके ऊपर अवश्य पड़ता है। कुछ बच्चे बड़ों के डर की वजह से अच्छा -बुरा बोल नहीं पाते हैं, मगर कुछ तो विद्रोह करने पर उतर आते हैं, भले ही वह प्रतीकात्मक ही हो। इक्कीसवीं सदी में पल रहे बच्चों को समझने के लिए उनके बदलते मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी है।

   रुनू के भा‌ई मुकेश के जन्मदिन पर जब उसकी माँ बूढ़ी दादी को सबके सामने आने से मना करती हैं तो यह बात उसे अच्छी नहीं लगती है —

   “माँ जी, आप बैठक में मत आइएगा। बड़े-बड़े लोग आएँगे। आप देहाती बोली बोलेंगी, लोग हँसेंगे। आप कपड़े भी पुराने ढंग से पहनती हैं। आप क्या करेंगी हम लोगों के बीच में?” (पृष्ठ 36)

रुनू को माँ की यह बात इतनी बुरी लगी कि वह कार्यक्रम में शामिल न होने का निर्णय लेकर चुपचाप छत पर जाकर बैठ गई। जब रुनू की खोजबीन शुरू हुई तो वह छत पर चुपचाप उदास बैठी मिली। उसने दादी के कार्यक्रम में न रहने का विरोध किया तो उसकी माँ को अपनी ग़लती का अहसास हुआ -”बेटा! मुझसे गलती हो गई, तुम्हारी दादी भी कार्यक्रम में भाग लेंगी। तुम नीचे चलकर नए कपड़े पहन लो और मुकेश के पास बैठो। तुम्हारी दादी अभी सबके पास आ रही हैं।” (पृष्ठ 38)

 रुनू की ज़िद के आगे माँ को इसलिए झुकना पड़ा कि वह परिवार के बुजुर्ग की प्रतिष्ठा को परिवार की मर्यादा से जोड़कर देख रही थी।

‘ईश्वर की बोली’ कहानी में धूर्त साधु ने पुजारी को तो बेवकूफ बना लिया था, लेकिन सार्थक ने उसकी सारी पोल-पट्टी खोल दी। वह गाँव वालों को धोखे में डालकर उन्हें ठग रहा था। उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। पुलिस ने गाँववालों को अंधविश्वास में न पड़ने की सलाह दी। बाद में पूछताछ में यह पता चला कि साधू के वेश में गाँववालोंको बेवकूफ बनाने वाला गाँव का ही रामधनी था जो चोरी के आरोप में पकड़ा गया था और उसे दो साल की जेल हुई थी। जेल से वापस आने पर वह साधू के वेष में लोगों को ठग रहा था।

    ‘ठाकुर साहब’ कहानी एक ऐसे भले आदमी की है जो हमेशा बिना जान-पहचान के लोगों की भी मदद करने के लिए तत्पर रहते थे। वे पुराने जमींदार थे, लेकिन जमींदारी खत्म होने पर उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए एक बस खरीद ली थी और उसमें हमेशा ड्राइवर के साथ-साथ रहते थे। गाँव में होनेवाली हर घटना पर उनकी नजर रहती थी। ऐसे ही घूस लेने के लिए एक विद्यालय निरीक्षक ने अध्यापकों का वेतन रोक लिया था तो ठाकुर साहब ने जिलाधिकारी से मिलकर वेतन तो दिलाया ही विद्यालय निरीक्षक को निलंबित तक करा दिया। बाद में उसके माँफी माँगने पर उसका निलंबन समाप्त कराने में भी मदद की।

    एक बार उनकी बस को डाकुओं ने रोककर यात्रियों को लूटने का प्रयास किया, ठाकुर साहब ने रोबीले अंदाज में उनसे लोहा लिया। बाद में डाकुओं ने भागने में ही अपनी भलाई समझी।

   अंतिम कहानी ‘नाटक’ बच्चों की शरारतों पर केन्द्रित है। कहानी में व्योमेश द्वारा उपलब्ध कराई गई किवाँच को रत्नेश की कमीज पर चिपका दिया। किवाँच की यह विशेषता होती है कि शरीर के जिस-जिस भाग से किवाँच का स्पर्श होगा, वहाँ खुजली शुरू हो जाएगी। धीरे-धीरे यह खुजली अपने विकराल रुप में पूरे शरीर में फ़ैल जाती है और खुजलाने वाला खुजलाते -खुजलाते बेदम हो जाता है।

     सतीश और व्योमेश दोनों की साँटगाँठ से ऐसी ही शरारतें कक्षा में चल रही थीं। एक दिन यह बात टीचर तक पहुँच गई। दोनों को यह गलतफहमी थी कि अपने सोर्स के सहारे वे प्रथम श्रेणी में पास हो जाएँग-- ”हम लोगों को कौन फेल करेगा? शहर के सबसे रईस घर के लड़के हैं हम दोनों। प्रिंसिपल साहब तक हमारे घर जाते हैं और हम लोगों के पापा को हाथ जोड़ते हैं। पापा उनसे बातें करते हैं, उन्हें मिठाई भी खिलाते हैं।” (पृष्ठ 53)

    सतीश और व्योमेश को सबक सिखाने के लिए वार्षिकोत्सव में कक्षा के ही छात्र जगत ने एक नाटक लिखकर उसका मंचन करने का कार्यक्रम बनाया। उस नाटक में अपने पिताजी का दंभ भरने वाले दो बिगड़ैल लड़कों को सुधारने का कार्यक्रम बनाया गया। नाटक में सतीश और व्योमेश को आधार बनाकर यह बताने का प्रयास किया गया कि दो शरारती बच्चे किस तरह अपना ही भविष्य बिगाड़ रहे हैं। इस नाटक का दोनों पर असर पड़ा, और उन्होंने न केवल कक्षाओं में शरारत करना छोड़ दिया, बल्कि मन लगाकर पढ़ाई पर भी ध्यान देने लगे।

   संग्रह की सभी कहानियाँ अनुभव की आँच में पककर निकली हुई हैं। इनमें कहीं -कहीं पात्रों की जगह कहानीकार ने स्वयं को प्रस्तुत करके ऐसा विस्तार दिया है कि वे खुद बोलने लगती हैं। जैसे ठाकुर साहब कहानी में आगरा के पारना गाँव में रचनाकार का अपना घर-परिवार है, जिसके कारण उनका आना-जाना लगा रहता है, इसीलिए वह दुबारा उदार स्वभाव वाले ठाकुर साहब से मिलने की इच्छा भी रखते हैं ।

    कहानियों के साथ-साथ सुभाष रॉय के बनाए रंगीन चित्रों में ग़ज़ब का आकर्षण है। पूरे पृष्ठ पर बनाए गए चित्रों में रंगों का संयोजन इतना शानदार है कि ऐसा लगता है बस अब चित्र बोल पड़ेंगे। कुल मिलाकर बहुत ही शानदार प्रस्तुति के साथ इसे पाठकों के लिए परोसा गया है।

© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम

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