“Guftagu” is a heartfelt poem that explores the quiet spaces of love, silence and inner longing. It reflects how deep emotions blur the line between “you” and “me,” turning unspoken feelings into a gentle conversation of the soul. Through simple yet powerful expressions, the poem captures how memories and silence shape the heart from within.
Guftagu Kavita in Hindi
“गुफ़्तगू” एक ऐसी भावनात्मक कविता है जो प्रेम, खामोशी और आत्म-अनुभूति की गहराइयों को छूती है। इसमें मन की वे सिलवटें, यादें और अनकहे एहसास उभरते हैं, जिनके बीच “मैं” धीरे-धीरे “तुम” में बदल जाती हूँ। यह कविता रिश्तों की नमी और दिल की सच्ची गूँज को बेहद सादगी से व्यक्त करती है।
रानी उर्फ़ प्रीतम की कविता
गुफ़्तगू
गुफ़्तगू तुमसे करते-करते
मैं मैं नहीं रह जाती हूँ,
तुम बन जाती हूँ।
मेरे दिल में न जाने कितनी
सिलवटें पड़ जाती हैं;
जाने कितने दर्द उभर आते हैं।
कभी तुम्हें पढ़ने की कोशिश करती,
तो कभी खुद को पढ़ती हूँ—
फिर भी जाहिर नहीं कर पाती
कि मैंने अंततः क्या-क्या पढ़ा।
वे सिलवटें जो तुम्हारे मन में
महसूस की थीं,
वो मेरे मन में भी
न जाने कब से आहें भर रही थीं;
बस अंतर इतना-सा है कि
मैं बयां कर देती हूँ,
और तुम कभी बयां नहीं कर पाए।
अलसुबह जब मैं तुम्हें याद करती हूँ,
तो लगता है—
मसरूफ़ ही तो थी मैं
अपनी ज़िंदगी में,
लेकिन वह मसरूफ़ियत
कुछ खाली-खाली-सी थी।
आज भी मैं मशरूफ़ हूँ
तुम्हारी यादों में,
इसीलिए तो
मैं मैं नहीं रहती,
तुम बन जाती हूँ।
तुम्हारा वजूद अलहदा है
मेरी जिंदगी में;
तुम्हारी ख़ामोशी
मानो बहुत कुछ कहती है मुझसे।
ख़ामोश तो मैं भी थी
कई वर्षों से—
एक दफा तुमने ही तो कहा था,
मेरी ख़ामोशी पसंद नहीं तुम्हें।
मुझे भी नहीं पसंद
तुम्हारा यूँ निशब्द रहना।
यह दर्द तुम्हें
महसूस नहीं होता क्या?
ये सब जो उद्विग्न करता रहता
प्रति क्षण हमें—
तुम्हारी ही तो आमद है,
कैसे भूल जाते हो तुम?
तुम ही तो हो वह वजह,
जिससे गुफ़्तगू करते-करते
मैं मैं नहीं रहती—
तुम बन जाती हूँ।
भूल जाती हूँ खुद को—
कहाँ थी, कैसी थी।
त्यज देती हूँ स्वयं को,
और फिर महसूस होता है—
तुम तो कहीं भी नहीं थे
मेरे इर्द-गिर्द,
बस मेरे अवचेतन मन में
कहीं गहरे बसे हुए थे।
- रानी उर्फ़ प्रीतम
कवयित्री, लेखिका - जबलपुर
“गुफ़्तगू” प्रेम के उस नाज़ुक स्पर्श को दर्शाती है, जहाँ खामोशियां भी बोल उठती हैं और यादें मन का आकार बदल देती हैं। कविता अंत में यह एहसास कराती है कि प्रेम चाहे सामने हो या अवचेतन में, उसका प्रभाव मन पर अमिट रहता है—इतना कि “मैं” भी कभी-कभी “तुम” बन जाती हूँ।
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