साहित्य और समाज की अंतर्निर्भर प्रासंगिकता : Sahitya Aur Samaj

Dr. Mulla Adam Ali
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Sahitya aur Samaj

Sahitya Aur Samaj

साहित्य और समाज की अंतर्निर्भर प्रासंगिकता

साहित्य के साथ जुड़ चुके या जुड़ रहे पाठकों के मस्तिष्क में, अध्ययन के समय अकसर कुछ प्रश्न उठते हैं जैसे- साहित्य क्या है? इसका स्वरूप कैसा होना चाहिए? इसका हमारे समाज से क्या संबंध है? साहित्य में समाज कैसे रूप में होना चाहिए? क्या साहित्य सामाजिक विसंगतियों को दूर कर सकता है? इन प्रश्नों का अनुचित उत्तर यहां पाठक को साहित्य से दूर कर देता है; वहां साहित्य की प्रासंगिकता पर भी प्रश्न चिह्न लगा देता है। ऐसी स्थिति में रचनाकारों और प्रबुद्ध पाठकों का यह दायित्व है कि वह साहित्य व समाज के परस्पर संबंधों के बारे में संवाद करें। यह संवाद ही तो है जो समाज में आ रही जड़ता को तोड़ सकता है। समाजशास्त्रियों के लिए समाज एक संगठन है, व्यक्तियों का समूह है। परन्तु साहित्यकार के लिए समाज संवेदनाओं, मनोभावों, मानसिक स्थितियों का संवेदनात्मक समूह है। यह संवेदना ही है जो इस संगठन को संगठित करके रखती है। जब संवेदना इस संवेदनात्मक समूह में हाशिये पर आ जाती है तो सामाजिक व्यवस्था टूटने लगती है। तब रचनाकार टूटते समाज का मूक दर्शक नहीं होता, वह उसे गहराई से अनुभव भी करता है। वह समाज में आ रहे नकारात्मक परिवर्तनों के मूल कारणों को आधार बना करके रचना में समाज का यथार्थ संवेदन बिम्ब रचता है। इसीलिए प्रत्येक युग में सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के संरचनात्मक रूप में भी परिवर्तन होता रहता है। वैदिक, उपनिषद, रामायण, महाभारत, बौद्ध व जैन साहित्य, आधुनिक कालीन साहित्य के क्रमिक अध्ययन से हम सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया को जान सकते हैं। राम कथा हमारे लिए इस लौकिक परिवर्तन का प्रमुख उदाहरण है।

आज हमारे लोक हृदय में जो राम है तुलसी निर्मित है जो विष्णु के अवतार, मर्यादा पुरुषौत्तम, आदर्श है। ऋग्वेद राम और राम कथा के कुछ पात्रों के नाम तो है पर व्यवस्थित रूप से कोई कथा नहीं है। वाल्मिकी रामायण अकेला ऐसा ग्रंथ है जिस में राम कथा की सुनियोजित व्यवस्था है संपूर्ण रामायण में राम तथा अन्य पात्र साधारण मानव रूप में हैं। जो सामान्य जन की तरह गुण-अवगुण सम्पन्न हैं। बौद्ध साहित्य में राम का संबंध बौद्ध धारणा से जोड़ दिया गया है। कबीर साहित्य में राम का निर्गुण रूप है न कि विष्णु अवतार। तुलसी रचित रामचरित मानस में राम विष्णु अवतार है जो मर्यादा पुरुषोत्तम, आदर्श राजा, आदर्श पति, और लोक नायक है। परन्तु आज का साहित्यकार तर्क और संवेदना के लौकिक आधार पर राम कथा का अवलोकन करता है। राम कथा में राम के चरित की जिन कमजोरियों को तुलसी ने अपनी भक्ति भावना के कारण अनदेखा कर दिया था आज का रचनाकार उन्हें सामने प्रस्तुत करके राम को लोक सामान्य के धरातल पर प्रस्तुत करता है (भगवानदास का अपने-अपने राम)। इस प्रकार साहित्य व समाज एक-दूसरे की आलोचना के रूप में परिवर्तित होते रहते हैं। अब हमारे सामने प्रश्न उत्पन्न होता है कि साहित्य में समाज का स्वरूप कैसा होना चाहिए? साहित्य सामाजिक विसंगतियों को दूर कर सकता है? ऐसे प्रश्नों पर विद्वान बस यह कह कर चुपकर जाते हैं कि 'साहित्य समाज का दर्पण है।' दर्पण में केवल अपना प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। पर साहित्य समाज का दर्पण नहीं उसके आगे का प्रयत्न है, उसकी आलोचना है। साहित्यकार किसी घटना का मूकदर्शक नहीं होता वह वीभत्स स्थिति, घटना को बदलने के लिए लेखनी से हर संभव यत्न करता है जो साहित्य अपने समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलता, वह क्षणिक होता है। सामाजिक स्थितियों में सांस लेता साहित्य सर्वकालिक होता है। यह कारण है कि कबीर का अध्ययन जिस भी काल में किया जाए हमें प्रासंगिक लगता है। साहित्य समाज रूपी रेल के साथ भी और उसके आग भी मशाल लेकर चलता है। कहा जाता है कि कीचड़ में बैठकर ही कीचड़ की गंदगी को अनुभव किया जा सकता है। हम यह नहीं कहते कि साहित्य कीचड़ है। साहित्यकार सामाजिक विसंगतियों रूपी कीचड़ में बैठ कर पाठकों के मन में उस कीचड़ के प्रति घृणा पैदा करता है और पाठकों को उस कीचड़ से दूर करने की प्रेरणा देता है। इस लिए साहित्य तो हमें सचेत करता है समस्याओं के प्रति, जीवन की उलझनों के प्रति, विसंगतियों के प्रति, इन्हें दूर तो हमें स्वयं करना है।

- प्रो. सुशील कुमार शैली

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