Maila Aanchal Novel by Phanishwar Nath 'Renu' : Maila Aanchal Me Aanchlikta
फणीश्वरनाथ 'रेणु' के उपन्यास 'मैला आँचल' में आँचलिकता
हिंदी में पहली बार किसी अंचल विशेष के उपेक्षित जीवन की समस्त छवि और कुरूपता, सीमा, विवशता और संभावना को इतनी मानवीय ममता और सूक्ष्मता से रूप दिया गया है। लेखक ने 'मैला आँचल' में अंचल विशेष की कथा ही नहीं कही है बल्कि अपनी सशक्त व्यंग्य - शैली से कथा को इस प्रकार नियोजित किया है कि समस्त अंचल सजीव होने के साथ-साथ समस्त जीवन के सौंदर्य-असौंदर्य, सद्-असद् की ओर बड़ी ही सूक्ष्मता से संकेत करता है और इस प्रकार यह कथा अचल के ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक राजनीतिक परिवेश में तथ्य आयोजन न रहकर जीवंत मानव संवेदनाओं, मूल्य- संघर्षों और अंतर्विरोध- ग्रस्त वर्ग-चेतनाओं की कहानी बन जाती है।
रेणु ने एक गाँव की मर्यादा के भीतर समेटकर तत्कालीन राजनीतिक दलों के आपसी टकराव और अतिवादिताओं को बड़ी मार्मिकता से चित्रित किया है। 'मैला आँचल' के स्थूल वस्तु संगठन और चरित्र-भंगिमा के रस लेकर ही तृप्त हो जाएगा, जो कि इस उपन्यास का चरम दान नहीं है।
लेखक की व्यंग्य-वृत्ति पात्रों और वस्तुओं के अंतर्विरोधों या असंगतियों को बड़ी बारीकी से चीरती चली जाती है, किंतु वह क्रूर नहीं होती, वह सदैव मानवीय तरलता से प्रेरित रहती है। क्रूर अमानवीय वृत्तियों के अंतर्विरोध या असुंदरताओं को चीरते समय लेखक की व्यंग्य - वृत्ति सदय नहीं होती जैसे नागा बाबा के के प्रतिरोध में कालीचरण का दल उसे मारता है और नागा भागता है तो नागा के मार खाने के प्रति न तो लेखक क्रूर कर्म सदयहोता है और न पाठक, लेकिन ऐसे पात्र 'मैला 'आँचल' में नहीं के बराबर हैं जो अपनी अदम्य क्रूरता या कोमलता के कारण लेखक की केवल निर्ममता या केवल ममता पा सके हों।
'मैला आँचल' में मानवीय छवि की यह लीला आद्योपांत व्याप्त है। यहाँ तक कि मेरीगंज का भूतपूर्व मार्टिन जिसने किसी किसान के मुख से मेरीगंज गाँव का पुराना नाम निकल जाने से उसे गिन-गिनकर पचास कोड़े लगाए थे, अपनी ही परिस्थितियों की लपेट में आकर दयनीय बन जाता है। इसी प्रकार रामखेलावन, बालदेव, लछिमी, महंथ सेवादास, कालीचरन, तहसीलदार, रामकिरपाल सिंह आदि पात्र बहुत ही मानवीय रूप में आए हैं।
वस्तु संघटन की दृष्टि से यह उपन्यास अब तक के उपन्यासों से थोड़ा भिन्न है। यह भिन्नता 'मैला आँचल' की या अन्य संश्लिष्ट आंचलिक उपन्यासों की अनिवार्यता है। कहा जाता है वस्तु-संघटन की दृष्टि से 'मैला आँचल' (और कुछ अन्य आँचलिक उपन्यासों) में बिखराव है यानी उसमें अनेक बिखरी हुई घटनाएँ, अनेक बिखरे हुए पात्र, इस तरह एक दूसरे के विकास में अपरिहार्य रूप से योग दिए बिना आते हैं। और अपनी-अपनी जगह पर स्थित हो जाते हैं कि उपन्यास में एक सूत्र में संघटित नहीं हो पाते। वास्तव में ऐसी आपत्ति इसलिए पैदा होती है कि हम आंचलिक उपन्यासों के अलग स्वरूप को परख नहीं पाते।
'मैला आँचल' में अनेक घटनाएँ आती हैं, अनेक प्रसंग आते हैं, अनेक पात्र आते हैं इतने कि याद नहीं रहते। ये सीधे-सीधे नही आते, आपस में उलझे हुए आते हैं, एक-दूसरे को काटते आते हैं, इस प्रकार प्रत्येक सर्ग कुछ चुनी हुई घटनाओं या चरित्र - विशेषताओं की सीधी रेखाओं से खिंचता हुआ नहीं आता, बल्कि अनेक अनुस्यूत जटिल और आड़ी-तिरछी रेखाओं से अंकित होता हुआ उभरता है। इस तरह उपन्यासकार एक ही साथ उनके परस्पर लिपटती तहों, अनेक गुँथे हुए प्रसंगों, अनेक संश्लिष्ट मूल्यों और बोधों तथा अंतर्विरोधों को सूक्ष्मता, सांकेतिकता एवं व्यंग्यात्मकता से उभारने में समर्थ होता है। रेणु' की यह शैली हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में नई शैली है। जहाँ उनेक अंतर्विरोधों, जटिल बोधों, बनते-बिगड़ते मूल्यों, जीवन की संक्रांतियों से 'ग्रस्त आंचल जीवन' को मूर्तित करना उद्देश्य हो, वहाँ इस प्रकार की शैली का अन्वेषण उपन्यास के लिए एक अनिवार्यता और उपलब्धि है। यदि रेणु ने अलग-अलग अध्यायों में अलग-अलग पात्रों की कथा कही होती और अगल-अलग घटनाओं को उभारा होता तो 'मैला आँचल' को यह आंतरिकता ओर संश्लिष्टता नहीं प्राप्त होती । उदाहरण के लिए पहला ही अध्याय लीजिए। अस्पताल की भूमि की जाँच-पड़ताल करने के लिए डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के आदमी आते हैं तो कितनी चीजें एक-दूसरे को काटती हुई आपस में बुन जाती हैं। जनता का भय, गाँव के अनेक नेताओं के चरित्रों का शंकित, उनका पारस्परिक विरोध, बालदेव के प्रति लोगों के बदलते भाव आदि अनेक बातें आपस में लिपटी हुई उभर जाती हैं। सभी अपनी-अपनी विशेषताओं को लिये हुए अंचल के व्यक्तित्व की इकाइयाँ हैं।
'मैला आँचल' के सौंदर्य और शक्ति का एक बड़ा रहस्य है, उसकी सांकेतिक सूक्ष्म व्यंग्यात्मक शैली। लेखक ने वर्णनात्मक शैली या विवेचनात्मक शैली मात्र से काम न लेकर कई प्रकार की शैलियों का संयोग कर दिया है। कई-कई प्रसंग बिना वर्णन के आपस में गूँथते चले जाते हैं। पाठक प्रसंग से ही समझ लेता है कोन कह रहा है, किसके बारे में कह रहा है। कभी-कभी कोई पात्र अपने से ही बात करता हुआ पक्ष प्रतिपक्ष को स्पष्ट करता है। कभी पूरे जन समूह या उसके एक वर्ग की भावना को व्यक्त करताहुआ यों ही चित्र उड़ता है। इस शैली की तीव्रता ओर प्रभावोत्पादकता में बहुत अधिक योग है लोकगीतों और प्रकृति का। आँचलिक उपन्यासों में लोकगीतों और प्रकृति चित्रों के प्रचुर ग्रहण का आरोप लगाने वालों को समझना चाहिए कि वे अंचल-जीवन के अभिन्न अंग हैं और लेखक उनका नियोजन बाहरी चमत्कार के लिए नहीं, वहाँ के जीवन के अंतर्गत रस को उद्घाटित करने के लिए करता है।
'मैला आँचल' तथा अन्य आँचलिक उपन्यासों के भाषा प्रयोग को लेकर काफी विवाद उड़ खड़े हुए। मुझे लगता है कि रेणु संतुलन बनाये रखने के समर्थ नहीं हुए हैं। सर्जनात्मक अनिवार्यता से निकलकर वे चमत्कार की कोटि तक पहुँच गए हैं। अनेक प्रकार की ध्वनियों का अजायबखाना भी रेणु को बुरी तरह आकर्षित करता है। सर्जनात्मक स्तर पर वह खड़ी बोली का प्रयोग आँचलिक भाषा ने की है।
- जी. राकेश कुमार
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