The book "Suno Baat Vigyaan Ki" by Devendra Mewari introduces science to children in the form of engaging stories. Through the character of Devinda, it explains fascinating topics like the moon, comets, fireflies, tsunamis, and the world of plants in a simple and entertaining way. This book not only promotes scientific awareness in children but also inspires their imagination and curiosity to explore knowledge in new dimensions.
"Suno Baat Vigyaan Ki" : A Wonderful Collection of Science Stories by Devendra Mewari
"सुनो बात विज्ञान की" : देवेन्द्र मेवाड़ी की विज्ञान कहानियों का अद्भुत संग्रह
देवेन्द्र मेवाड़ी की पुस्तक "सुनो बात विज्ञान की" बच्चों के लिए विज्ञान को रोचक कहानियों के रूप में प्रस्तुत करती है। देवीदा के माध्यम से चाँद, धूमकेतु, जुगनू, सुनामी और पेड़-पौधों की दुनिया बच्चों की जिज्ञासाओं को सरल और मनोरंजक ढंग से समझाती है। यह पुस्तक न सिर्फ बाल साहित्य में वैज्ञानिक चेतना जगाती है बल्कि बच्चों को कल्पना और ज्ञान की नई उड़ान भी देती है।
सुनो बात विज्ञान की : देवेन्द्र मेवाड़ी
बाल साहित्य की सैकड़ों पुस्तकों से गुजरते हुए मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि विज्ञान लेखन के नाम पर पता नहीं कैसी -कैसी चीज़ें खपाकर बाल पाठकों के लिए परोस दी जाती हैं, कि आश्चर्य और अफसोस दोनों एकसाथ होता है। कई पुस्तक पढ़ने पर पता चलता है कि यह तो विज्ञान के सिद्धांतों का सरलीकरण है, या कहानी पर विज्ञान का मुलम्मा चढ़ा दिया गया है। सबसे अधिक विज्ञान कथाएँ शीर्षक से आई पुस्तकों में कथा के विस्तार में विज्ञान का जो छौंक लगाया जा रहा है वह पाठकों को दिग्भ्रमित अधिक करता है। जब कहानियों में भौतिक परिवर्तन और रासायनिक परिवर्तन, दिन-रात में उलझाव-सुलझाव, सूरज-चंदा की कहानी, भूकंप का आना आदि आदि विषय बार-बार घोलकर पिलाए जाते हैं तो विशेष रूप से बच्चों के लिए लिखी गई विज्ञान कथाओं पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। कुछ रचनाकार वर्षों पुरानी प्रकाशित वैज्ञानिक कथाओं को थोड़ा हेर-फेर करके जब छपवाकर विज्ञान लेखक का तमगा लेने लगते हैं तो यह स्थिति बड़ी हास्यास्पद हो जाती है। एकाध तो अपने को विज्ञान का जनक ही बताने में कोई संकोच नहीं करते हैं। यहाँ मेरे लिखने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि सभी विज्ञान कथाएँ ऐसी ही लिखी जा रही हैं, लेकिन जो लिखी गई हैं या लिखी जा रही हैं, कम से कम बच्चों को तो उनसे आगाह किया ही जा सकता है।
इसका दूसरा सुखद पहलू यह भी है कि ऐसे आपाधापी के दौर में कुछ गिने-चुने ऐसे लोग भी हैं जो विज्ञान का विज्ञापन नहीं करते हैं, अपितु जिनके तन-मन और जीवन में केवल और केवल विज्ञान ही बसता है। उनकी हर पुस्तक विज्ञान का शंखनाद करती है, वह कहानी भी सुनाते हैं तो विज्ञान की बारीकियों को इतने सहज और सरल ढंग से सामने बैठे श्रोताओं को परोस देते हैं कि सब मंत्रमुग्ध होकर आकंठ डूब जाते हैं। जिसे सही अर्थों में विज्ञान का नशा हो, ऐसे यायावर कथाकार देवेन्द्र मेवाड़ी जब देवीदा की भूमिका में उतरकर संवाद करते हैं तो समय का पता ही नहीं चलता है। ऐसा मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। आवश्यक नहीं है कि दूसरे लोग भी मेरी बातों से सहमत ही हों।
इसका कारण यह है कि देवेन्द्र मेवाड़ी जी को कार्यक्रमों में सुनने के साथ -साथ उनकी कुछ पुस्तकें पढ़ना शुरु किया तो उनकी और पुस्तकें पढ़ने की लालसा बढ़ती ही गई। उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘नाटक-नाटक में विज्ञान’ पर जब उन्हें साहित्य अकादमी का बालसाहित्य पुरस्कार मिला था, तभी से उनका और साहित्य भी पढ़ना चाहता था। हरिकृष्ण देवसरे बालसाहित्य न्यास के कार्यक्रमों में उनसे बराबर नई दिल्ली में मुलाकात होती थी, लेकिन यह मुलाकात भी रस्म अदायगी में ही निकल जाती थी।
पिछले दिनों साहित्य अकादमी से प्रकाशित उनकी बालकहानियों की पुस्तक "सुनो बात विज्ञान की" पढ़ते हुए उनकी अन्य पुस्तकें विज्ञान बारहमासा, विज्ञान और हम, विज्ञान की दुनिया तथा सौरमंडल की सैर आदि पुस्तकें भी याद आईं। ‘सुनो बात विज्ञान की’ पुस्तक में कुल 10 ऐसी कहानियाँ हैं,जो पाठकों को पूरी तरह बाँधकर रखती हैं। देवेन्द्र मेवाड़ी की भूमिका पुस्तक को पढ़ने के लिए उकसाती है —” प्यारे दोस्तों! आओ विज्ञान की बात करते हैं। बहुत रोचक हैं विज्ञान की बातें। कथा- कहानी जैसी मजे़दार बातें। जिन्हें विज्ञान के बारे में पता नहीं होता, वह यों ही कह देते हैं कि विज्ञान तो कठिन होता है! लेकिन यह सच नहीं है। विज्ञान में भी कल्पनाएँ होती हैं। उन कल्पनाओं के सहारे वैज्ञानिक नई-नई खोज करते हैं। हर खोज की बड़ी रोमांचक कहानी होती है क्योंकि उसमें उतार- चढ़ाव होते हैं। कभी असफलता हाथ लगती है तो कभी सफलता। अक्सर असफलता से हार न मानकर वैज्ञानिक सफलता की मंज़िल तक पहुँच जाते हैं। इस तरह विज्ञान आगे बढ़ता रहता है और हमें नई सच्चाइयों का पता लगता रहता है।” (पृष्ठ 5)
प्रस्तुत पुस्तक में देवीदा एक ऐसा चरित्र है जो बच्चों के बहुत करीब है, इसीलिए बच्चे बेधड़क उनसे हर तरह के सवाल करके अपनी जिज्ञासाओं का समाधान चाहते हैं। देवीदा उस बुज़ुर्ग की भूमिका में भी आते हैं जो विघटन की कगार पर पहुँच चुके परिवार को दादा-नाना की तरह जोड़ने का काम करते हैं। देवीदा अपने अनुभवों से बच्चों को जो बताते हैं, उसे कहानीकार ने इस प्रकार व्यक्त किया है —
“सुनो बात विज्ञान की’ में तुम्हारी ही तरह के बच्चे अपने प्यारे देवीदा से सवाल पूछते हैं। कई विषयों पर कई तरह के सवाल, और देवीदा बातों- बातों में ही उनके सवालों के जवाब दे देते हैं। वे चाँद के बारे में पूछते हैं, धूमकेतु के बारे में जानना चाहते हैं। यह भी जानना चाहते हैं कि प्रकाश क्या है और यह भी कि तुम्हारे पेड़-पौधे कैसे हमारा साथ निभाते हैं? हर साल वसंत ऋतु कैसे आ जाती है और जुगनू क्यों जगमगाते हैं? चिड़िया चहचहाकर क्या बातें करती है? उन्होंने सुनामी नामक भयंकर समुद्री लहरों के बारे में सुना है, इसलिए जानना चाहते हैं कि वे जानलेवा लहरें क्यों आती हैं? वे हम सबको बीमार बना देने वाले रंगों के बारे में भी जानना चाहते हैं ,और इस सब के बाद में आलू की मजेदार कहानी भी सुनना चाहते हैं।” (पृष्ठ 6)
यहाँ पर कहानीकार ने ऐसे अनेक प्रश्नों को उठाकर एक तरह से पुस्तक की कहानियों की रूपरेखा इसलिए स्पष्ट कर दी है ताकि पाठक/ बच्चे मानसिक रूप से तैयार होकर पुस्तक की बारीकियों को समझते हुए उसका अध्ययन करें। यही नहीं वे यह भी बताते हैं कि देवीदा बच्चों के प्यारे -प्यारे दोस्त हैं और वे बच्चों की भाषा में ही उनकी जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं। वे बच्चों के सारे सवालों का जवाब इसलिए भी सफलतापूर्वक दे पाते हैं कि पुस्तकालयों में जाकर खूब पढ़ते हैं और समय-समय पर सोशल मीडिया से विज्ञान के रहस्यों की जानकारियाँ भी प्राप्त करते रहते हैं। ऐसा जागरुकता अभियान इसलिए भी जरूरी है कि समय के साथ-साथ विज्ञान में भी लगातार बदलाव हो रहे हैं। कहानी में हम भले ही सूरज-चंदा साथ-साथ का उद्घोष करें लेकिन हकीकत यही है कि वैज्ञानिक दृष्टि से दोनों साथ-साथ आ ही नहीं सकते हैं। जिस दिन दोनों साथ-साथ आ जाएँगे, उस दिन की कल्पना से ही हम भयभीत हो जाते हैं।
संग्रह की पहली कहानी ‘चलो चलें चंदा के देश’ में देवीदा बच्चों को बड़े तार्किक ढंग से सुपर मून,ब्लू मून और फुल मून की कहानी समझाते हैं--
“हमारी पृथ्वी से चाँद की औसत दूरी है 3,84000 किलोमीटर, लेकिन आज जो चाँद तुम देख रहे हो वह पृथ्वी से केवल 3,57344 किलोमीटर दूर है तो सुपर मून हो गया ना?
मुहावरे ऐसे ही तो बनते हैं दोस्तों! बहुत दिनों बाद ऐसा होता है कि एक ही महीने में दो बार पूर्णिमा हो जाती है। जब ऐसा होता है तो उसे चाँद को ब्लू मून कह देते हैं, यानी बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ। तो ब्लू मून नीला चाँद नहीं बल्कि एक ही मन में दुबारा दिखाने वाला चाँद है।” (पृष्ठ 8)
सुपर मून यानी पूर्णिमा। इसके बाद देवीदा चाँद के बारे में और जानकारी देने से पहले भूमिका के रूप में चाँद पर लिखी गई सूरदास और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविताओं के अंश सुनाते हैं। यही नहीं देवीदा चाँद को लेकर की गई बहुत सी कल्पनाओं से भी बच्चों को अवगत कराते हैं। इस कहानी का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है— देवीदा का कल्पना अंतरिक्षयान जिसमें बैठकर पलक झपकते ही पूरे ब्रह्मांड में कहीं भी जा सकते हैं। बच्चों को भीतर कमरे में ले जाकर देवीदा मन की आँखों से उन्हें सब कुछ देखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
अंतरिक्षयान चंद्रयान -3 के रास्ते पर चल पड़ता है। बच्चे जिज्ञासा प्रकट करते हैं कि अगर हम चन्द्रयान -3 की तरह चलेंगे तब तो बहुत समय लगेगा, तभी देवीदा कहते हैं— हमारा कल्पना अंतरिक्षयान तो पलक झपकते ही कहीं भी पहुँच सकता है! हम चंद्रयान-3 की राह पर बहुत तेजी से आगे बढ़ेंगे। देवीदा बड़ी तेजी से आगे बढ़ते हुए बच्चों को विशाल क्रैटर- मैंजेनियस-सी और सिंपोलियस-एन के बारे में जानकारी देते हैं। वे सौर पवन, विकिरण और पराबैंगनी प्रकाश के साथ हाइड्रोजन, हीलियम, नियॉन और आर्गन गैस का भी उल्लेख करते हैं।
बच्चे जैसे -जैसे सवाल करते हैं, देवीदा बहुत ही सरल भाषा में उनका जवाब देते चलते हैं—” चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण भले ही कम हो लेकिन हमारी पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बहुत है। तभी तो उसने चाँद को अपने गुरुत्वाकर्षण से बाँध रखा है और चाँद पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रहा है।” (पृष्ठ 14)
देवीदा यह भी बताते हैं कि ज्वार चंद्रमा के कारण आता है तथा चाँद और पृथ्वी के बनने की प्रक्रिया भी समझाते हैं। देवीदा बच्चों को इस छोटी सी कहानी में मारिया अर्थात सागर की भी जानकारी देते हुए मारिया इम्ब्रियम, सेरेनिटेटिस मारिया और ट्रैंक्विलिटेटिस मारिया के बारे में बताते हुए यह उल्लेख करना नहीं भूलते हैं कि अपोलो अंतरिक्ष यान यहीं उतरा था और नील आर्मस्ट्रांग ने अपना पहला कदम चाँद पर रखा था।
देवीदा के माध्यम से कल्पना का अंतरिक्षयान ढेर सारी जानकारियाँ देता हुआ अंत में वायुमंडल को पार करता हुआ भारत में स्थित कालोनी के आँगन में सुरक्षित उतरता है तो गार्गी, माइरा, मानसी, ऋचा और वाणी देवीदा को रक्षाबंधन की याद दिलाते हुए उनकी कलाई पर राखी बाँधती हैं। बच्चे चंदा की सैर करके अत्यधिक आनंदित होते हैं।
संकलन की अगली कहानी ‘लो आया धूमकेतु’ में देवीदा बच्चों को धूमकेतु यानी पुच्छलतारा को अपनी दूरबीन की सहायता से बच्चों को दिखाते हुए उसके बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं। सबसे पहले यह कि धूमकेतु की खोज किसने की थी— “चीन के 19 वर्ष के एक शौकिया खगोलविज्ञानी क्वांझी में और ताइवान के खगोलविज्ञानी ची शेंग लिन ने। यह खोज 11 जुलाई 2007 को ताइवान की लुलिन वेधशाला में की गई। इसलिए इस पुच्छलतारे का नाम लुनिन रख दिया गया।” (पृष्ठ 21)
बच्चे दूरबीन की सहायता से धूमकेतु को देखकर अपने-अपने मन में उठ रही शंकाओं का समाधान देवीदा से प्राप्त करते हैं। धूमकेतु की यात्रा, वह कब-कब देखा गया, उसे देखना चाहिए या नहीं और अथर्ववेद में दी गई प्रार्थना —-’उल्काओं और धूमकेतु से हमारी रक्षा करें’, वूर्ट बादल और लाखों किलोमीटर लंबी पूँछ बनने के कारणों का भी देवीदा ने बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया है। सबसे महत्त्वपूर्ण जानकारी यह कि— कुछ धूमकेतु बहुत बड़े घेरे में आते हैं, कुछ छोटे घेरे में आते हैं। लेकिन कुछ धूमकेतु तपते धधकते सूरज के इतने पास तक पहुँच जाते हैं कि गर्मी से जलकर खाक हो जाते हैं।
सन् 1910 में हेली धूमकेतु के आने पर तमिल भाषा में सुब्रह्मण्य भारती ने कविता लिखी थी, उसका संदर्भ देकर कहानीकार ने छोड़ दिया है कि बच्चे उसे खोजकर पढ़ें। पाठकों की सुविधा के लिए उस कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं —
धूमकेतु हे! स्वागत तेरा
अद्भुत हैं दृश्य, तिल पर ताड़-सा खड़ा है तू!
नन्हें नक्षत्र से बढ़ती पूँछ धारदार
तेरी यारी है बनी पूर्वदिशी शुक्र से
वैज्ञानिकों का कहना है
अगणित करोड़ की दूरी तक
कल्पनातीत कोमल वापस से
बनी है हाँ पूँछ वह तेरी
कहते हैं पृथ्वी को भी अपनी दुम से तू
बिन धुएँ, बिन डाले अड़चन, चलता बनेगा यों
सुना है ऐसा नयापन हजारों बार तेरे बारे में।
सुब्रह्मण्य भारती : संकलित कविताएँ एवं गद्य (प्रधान संपादक: कृ. स्वामिनाथन्, सहायक-रघुवीर सहाय : पृष्ठ 64)
संग्रह की हर कहानी में वैज्ञानिक तथ्यों को पूरी तरह तर्कसंगत ढंग से पिरोकर देवीदा जिस ढंग से बच्चों को सुनाते हैं, उससे ऐसा प्रतीत होता है मानो देवीदा सामने बैठकर इन विषयों को सुना रहे हैं, बच्चों के साथ-साथ पाठक भी बराबर लाभान्वित हो रहे हैं। ‘ज्ञान का प्रकाश’ कहानी में दीपावली के बहाने प्रकाश की पूरी कहानी के पेंच खुलते चले जाते हैं—
“हमारी पृथ्वी पर सूरज के प्रकाश से ही जीवन की चहल-पहल है। इसकी किरणों से पेड़ पौधे पत्तियों की रसोई में अपने हरे रंग, हवा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड और पानी की मदद से भोजन बनाते हैं। वे अपने लिए भोजन बनाते हैं और हमारे लिए प्राणवायु हवा में छोड़ते हैं। अगर सूरज ना हो तो चारों ओर अमावस्या की रात जैसा घनघोर अँधेरा छा जाएगा। पेड़-पौधे न अपने लिए भोजन बना पाएँगे और ना हमारे लिए प्राणवायु। भोजन नहीं मिलेगा तो पौधे समाप्त हो जाएँगे और अगर हवा में प्राणवायु ऑक्सीजन नहीं होगी तो इस धरती पर जीव- जंतुओं के लिए जीना दूभर हो जाएगा।” (पृष्ठ 30)
देवीदा प्रकाश की किरणों में सात रंगों की कहानी न्यूटन के माध्यम से बताकर उन सातों रंगों–बैंगनी, जामुनी, नीला,हरा, पीला, नारंगी और लाल को सात ज्योतियाँ भी कहते हैं। वे बच्चों को यह भी बताते हैं कि प्रकाश चलायमान है तभी दूर सूर्य से हमारे पास तक पहुँच जाता है। सचमुच यह कितने आश्चर्य की बात है कि एक सेकेंड में यह करीब 3 लाख किलोमीटर की दूरी पार कर लेता है।
पूरी कहानी में प्रकाश से जुड़े हुए तथ्यों के साथ-साथ तारे, ब्रह्मांड और आदिमानव से जुड़ी हुई बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ भी देवीदा बच्चों को बताकर यह भी खुलासा करते हैं कि थामस अल्वा एडिसन ने बिजली के बल्व की खोज करके हमारी दुनिया को रोशन करने का काम किया है। दीपावली के अवसर पर इतनी जानकारी प्राप्त करके बच्चे फुलझड़ियाँ जलाकर अपनी खुशी जाहिर करते है।
विज्ञान की जानकारियों के भंडार देवीदा से उस दिन बच्चों ने पूछा लिया कि—यह बताइए, अगर पेड़-पौधे न होते तो क्या होता?
बस देवीदा को मौका मिल गया और उन्होंने अनुभव की आँच में पके हुए अपने निष्कर्ष का खुलासा कर दिया —”अगर पेड़- पौधे न होते तो कुछ भी न होता। इस धरती पर जीवन भी नहीं होता। न नन्हें कीट- पतंगे होते, न निराले पशु-पक्षी और न हम होते।” (पृष्ठ 36)
इसके बाद देवीदा पृथ्वी के बनने की पूरी कहानी, महासागर, नन्हीं कोशिकाएँ, सूरज की किरणें तथा कार्बन डाइऑक्साइड से जुड़ी हुई संरचनात्मक जानकारी देकर उसमे पेड़ पौधों के महत्त्व को जोड़कर बच्चों के बीच में साझा करते हैं। आज जो प्राकृतिक आपदा आ रही है उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हरे-भरे पेड़ों की अंधाधुंध कटान से संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है। अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब—” पेड़ पौधे काम होते चले गए तो भला हवा साफ कौन करेगा? कौन हमें साँस लेने के लिए प्राणवायु ऑक्सीजन देगा? वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ती चली जाएगी। कल-कारखाने और सड़कों पर दौड़ती मोटर कारें धुँआ उगलती रहेंगी। कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने से लगातार गर्मी बढ़ती जाएगी, बढ़ती चली जाएगी। इससे बर्फीले इलाकों की बर्फ पिघलने लगेगी। इस कारण नदियों में बाढ़ आएगी और भारी विनाश होगा।” (पृष्ठ 39)
अगली कहानी ‘वसंत आ गया’ में ऋतुराज कहे जाने वाले वसंत से देवीदा बच्चों को न केवल कविताओं के माध्यम से परिचित कराते हैं, बल्कि वह क्यों आता है, उसके आने से क्या प्राकृतिक परिवर्तन होता है, वसंत क्यों अच्छा लगता है आदि जानकारियाँ भी बड़े सरल और रोचक तथा खिलंदड़े ढंग से बाँटते हैं। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार सूर्यकांत त्रिपाठी का तो जन्म ही वसंत पंचमी को हुआ था, उनकी कविता से बात को आगे बढ़ाते हुए बालसाहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर सोहनलाल द्विवेदी, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी की कविताओं के साथ ही नई कविता के पुरोधा अज्ञेयजी की कविता को भी कहानी में ऐसा पिरोया गया है कि पाठक ज्ञान के आकाश में पंख लगाकर उड़ते ही चले जाते हैं।
वसंत में खिलने वाले फूलों, तितलियों, चिड़ियों और मौसम के बदलाव को जिस रोचक शैली में कहानी द्वारा प्रस्तुत किया गया है, उससे बच्चे तो देवीदा के मुरीद हो ही जाते हैं, पाठक भी दाँतों तले अँगुली दबाने को मजबूर हो जाते हैं। समापन की यह काव्यात्मक पंक्तियाँ तो सचमुच वसंत के आगमन को साकार कर देती हैं —
“लो, वसंत आ गया
लो वसंत आ गया।
कोंपलें हैं खिल उठीं, खिल रहे हैं फूल
रंग गया है हर तरफ, धरा का दुकूल।
भौंरे गुनगुना रहे, मँडरा रही है तितलियाँ
धूप भी निखर उठी, झूमती है डालियाँ।
लो, वसंत आ गया, लो, वसंत आ गया।” (पृष्ठ 48)
अगली कहानी ‘जगमग-जगमग जुगनू चमके’ में देवीदा बच्चों को इस बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं कि ये जुगनू कहाँ से आते हैं और क्यों चमकते हैं? जुगनू की चमक अंधकार में ही दिखलाई देती है। दरअसल, ये नन्हें जुगनू भी बड़े कवच जैसे पंखों वाले गोल-मटोल गुबरैलों के बिरादर हैं, लेकिन कुदरत ने जुगनुओं का शरीर कोमल बना दिया है और अँधेरे में जगमगाने के कारण उन्हें प्रकाश भी दे दिया है जो ठंडा और हल्का हरापन लिए हुए होता है।
देवीदा बच्चों को आगे बताते हैं कि —” एक प्रसिद्ध अंग्रेज वैज्ञानिक हुए हैं- रॉबर्ट बॉयल। सन 1962 की बात है। वे जुगनुओं पर प्रयोग कर रहे थे, प्रयोगों से उन्हें पता चला कि जुगनुओं का प्रकाश ठंडा होता है और यह भी कि जुगनुओं की चमक हवा पर निर्भर करती है।
इसके शरीर के आखिरी यानी आठवें और नवें हिस्से में एक पदार्थ होता है। उसका वैज्ञानिक नाम है– लुसीफेरिन। यही लुसिफेरिन एक एंजाइम लूसीफ़रेज और हवा की ऑक्सीजन के कारण चमक उठता है।” (पृष्ठ 50-51)
इसके अतिरिक्त भी जुगनुओं के बारे में अनेक रोचक और कम सुनी हुई बातों को दृष्टांतों के साथ भाँति-भाँति के उदाहरण देकर देवीदा बच्चों को अनेक अनसुलझे तथ्यों से अवगत कराते हैं। जुगनुओं के बारे में ऐसी जानकारियाँ सुनकर बच्चे कभी हतप्रभ होते हैं तो कभी सोच में डूबा जाते हैं। अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि हमें जुगनुओं से प्यार करना चाहिए और उन्हें बचाना चाहिए। ऐसा इसलिए कि कभी-कभी बच्चे अपने मनोरंजन के लिए जुगनुओं को पकड़कर किसी शीशी में बंद कर देते हैं और पर्याप्त ऑक्सीजन के अभाव में जुगनू दम तोड़ देते हैं।
‘चिड़ियों की बातें’ में चहकती-फुदकती चिड़ियों का पूरा संसार समाया हुआ है। इसी बहाने कौआ-कोयल के बारे में भी बड़ी रोचक और महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। आखिर कोयल कौवे के घोंसले में अंडे क्यों देती है ? कितनी अजीब बात है कि कोयल को तो घोंसला बनाना आता ही नहीं। अब इसे प्रकृति का वरदान कहें या अभिशाप कि कोयल कौवे के घोंसले में ही अंडे देती है और एक जैसा ही रंग होने के कारण कौआ-कौवी समझ ही नहीं पाते हैं कि कितने बच्चे उनके अपने हैं और कितने कोयल के हैं !
‘लील गईं लहरें जीवन’ कहानी में सुनामी की त्रासदी का ऐसा वर्णन किया गया है कि पाठक इसे पढ़ते हुए उस दौर में चले जाते हैं जब सुनामी ने कई देशों में भयंकर तबाही मचाई थी। उस घटना को यादकर हम आज भी काँप जाते हैं। देवीदा एक उबले हुए अंडे के द्वारा सुनामी को समझाते हुए बच्चों को बताते हैं कि— ”पृथ्वी हजारों किलोमीटर लंबी और 80 किलोमीटर तक मोटी अलग-अलग प्लेटों से बनी है। उनके बीच दरारें हैं। भीतर धधकता हुआ पोला लावा वगैरह भरा है। जब ये चट्टानें ज़रा सा भी खिसकती है या टकराती हैं, तो भयानक झटका लगता है। इस बार ऑस्ट्रेलिया और यूरेशिया की प्लेट टकरा गई, उसी से समुद्र के भीतर भयंकर भूकंप आया और तबाही मचाने वाली सुनामी की विशाल लहरें पैदा हो गईं।” (पृष्ठ 64-65)
‘रंग में भंग’ कहानी मिलावटी रंगों का पर्दाफाश करती है। आजकल बाजार में जिस तरह से मिठाई, फलों और सब्ज़ियों में रंग मिलाकर उन्हें आकर्षक बनाकर बेंचा जा रहा है उससे स्वास्थ्य का खतरा तो उत्पन्न हो ही रहा है, लोग भयंकर बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। मिठाइयों में रंगों के साथ -साथ एल्यूमीनियम की जहरीली चमकीली परत चिपकाकर बेची जा रही है। दूध में दूधिए अधिक लाभ के लिए सिंथेटिक का इस्तेमाल कर रहे हैं। होली में तो खोया और पनीर में भी इतनी मिलावट होती है कि सीधे बीमारियाँ घरों में पहुँच रही हैं —” अबीर-गुलाल और खाने के रंगों के नाम पर बाजार में जो लगाने और खाने के सस्ते सुख रंग बेचते हैं, उनमें शीशे का ऑक्साइड होता है, नीला थोथा होता है, एल्यूमिनियम ब्रोमाइड होता है और मर्करी सल्फाइड, जैंसन वायलेट,प्रूशियन ब्लू और क्रोमियम आयोडीन जैसे जहरीले पदार्थ होते हैं। इनसे बुखार, पेट दर्द, उल्टी- दस्त, जलन, खुजली और आँख की बीमारी हो सकती है। सूखे रंगों में यह पिसा हुआ काँच, बजरी और अभ्रक मिला देते हैं। उनमें हानिकारक तेल मिलाकर पेस्ट बना देते हैं। यह सभी चीजें स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक हैं।” (पृष्ठ 74)
संग्रह की अंतिम कहानी ‘सुनो कहानी आलू की’ भी बड़ी रोचक है, क्योंकि आलू ही एक ऐसी सब्जी है जो सभी में मिल जाती है। यही नहीं आलू की इतनी अधिक चीजें बनती हैं कि कभी-कभी हम यह सोचने लगते हैं कि अगर आलू न होता तो क्या होता? आलू का कुरकुरा चिप्स बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी स्वाद लेकर खाते हैं। आलू के पराठों का स्वाद चटकारे लेकर हमारी भूख को बढ़ा देता है। आलू-गोभी,आलू-मटर,दम-आलू , आलू-धनिया जब होटल में लेकर के मुँह से धाराप्रवाह सुनते हैं तो कभी-कभी हँसी आ जाती है कि बिना आलू के तो जैसे सब्जियों की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
कहानी में देवीदा ने बड़े विस्तार से आलू कैसे पैदा होता है और कहाँ-कहाँ बहुतायत में पाया जाता है और ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ जब अंग्रेज भारत आए तो आलू को बेशकीमती सब्जी से नवाजा गया। तथ्य तो यह भी है कि—” आलू अपने आप में पूरा भोजन है। इसमें कार्बोहाइड्रेट होता है। विटामिन और खनिज होते हैं। हाँ, प्रोटीन की मात्रा थोड़ी कम होती है लेकिन अगर आलू को दाल, दूध- दही या मांस मछली के साथ खाएँगे तो प्रोटीन की कमी पूरी हो जाएगी। जहाँ तक विटामिनों की बात है- वैज्ञानिक कहते हैं इसमें विटामिन ‘सी’ और ‘बी वर्ग’ के विटामिन होते हैं। आलू से हमें पोटैशियम, मैग्नीशियम और कैल्शियम मिलता है। दुनिया भर में वैज्ञानिक आलू में पोषक तत्त्व बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।” (पृष्ठ 84)
कुल मिलाकर इस पुस्तक में जानकारियों का खजाना है, और वह भी कहानियों के माध्यम से जिस प्रकार देवीदा बच्चों को सुनाकर उनकी जिज्ञासाओं का समाधान तो करते ही हैं, उनमें ऐसा रंग भर देते हैं जो कभी भंग नहीं होता है बल्कि और गाढ़ा होता जाता है। इन कहानियों में बच्चों की पुस्तकों में अपनी कला का जादू बिखेरने वाले पार्थ सेनगुप्ता ने श्वेत-श्याम चित्रों में भी ऐसा आकर्षण उत्पन्न किया है कि सभी चित्र बोलते नजर आते हैं। पुस्तक का आवरण रंगीन और लुभावना है। साहित्य अकादमी ने इसे पूरी साज-सज्जा के साथ प्रकाशित करके बच्चों के साथ-साथ बड़ों के लिए भी महत्त्वपूर्ण उपहार दिया है।
© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम
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