साप्ताहिक हिन्दुस्तान 1982 में प्रकाशित बीएल आच्छा जी का पहला व्यंग्य : गुटका संस्कृति

Dr. Mulla Adam Ali
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साप्ताहिक हिन्दुस्तान 1982 में प्रकाशित बीएल आच्छा जी का पहला व्यंग्य : गुटका संस्कृति

बी. एल. आच्छा जी का पहला व्यंंग्य (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 1982) अब "आस्था के बैंगन" के नये संस्करण में भी।

गुटका संस्कृति

"आपका पान कैसा लगेगा?"

 "पान नहीं, गुटका जर्दे का।"

    पान वाला चूना - कत्थामय हथेली में ज़र्दा और चूना रगड़ने लगा। गुटके की रचना-प्रक्रिया शुरु हो गई। कुछ क्षणों की मसलन - रगड़न के बाद पान वाले ने दूसरी हथेली की अंगुलियों से तीन बार सूप की-सी फट फट की सूप ही की तरह मोटे माल को रलकाते हुए अलग कर दिया। बारीक माल को सुपारी के साथ कागज पर रख कर बाबूजी के हवाले कर दिया। बाबूजी ने बड़े करीने से नीचे के औंठ और जबड़ों के बीच गुटका दबा दिया। मुँह ऐसे फूल गया, जैसे दाँत के डाक्टर ने काढ़ी लगा दी हो। फिर देर तक पिच... पिच का सिलसिला चलता रहा और बाबूजी ने रास्ते चलते अपनी लार ग्रंथियों से रिलेमिले गुटका रस से सड़क, दीवार, कचरादान आदि सभी को कृतार्थ कर दिया।

        गुटका, पान का लघु संस्करण ही है। लेकिन कुछ लोग इसे पूँजीवादी सभ्यता का समाजवादी संस्करण कह लेते हैं। पूँजीवादी लोग मीठा पत्ता, असली जर्दा और अन्य अमीर मसालों के कायल हैं। पूँजीवादी अरमान के कुछ मध्यमवर्गीय भी मीठे और बनारसी के भक्त है। पर गुटका तत्त्वतः और सारतः समाजवादी है। मीठे की तुलना में लगभग एक तिहाई कीमत, देर तक चलने वाला, साधारण आदमी के बूते की चीज और प्रकृति से जनवादी। समाजवादी इस अर्थ में भी कि आम आदमी इसका आम उपयोग आम जगह पर कर सकता है। इसे खाते हुए खास आदमी भी आम आदमी जैसा लगता है । तलब होने पर खास आदमी भी आम आदमी से मुखातिब हो जाता है। चाहें तो दोमुँही डिबिया में ज़र्दा और चूना भर लीजिए और सेवन करते रहिए। सिगरेट पीते देख पिता नाराज होते हैं और बच्चों पर गलत असर पड़ता है। गुटके के साथ कोई नैतिक-अनैतिक या सामाजिक-वैयक्तिक बोध जुड़ा हुआ नहीं है। यों कोई खिलाए तो मीठा पत्ता खा लीजिए। मीठा पत्ता गुटकाई समाजवादी की सुविधा है। यों देखा जाए तो समाजवाद भी पूँजीवाद का पड़ोसी दुश्मन है। पड़ोसी से कितनी ही लड़ाई क्यों न हो, वक्त बेवक्त नमक या माचिस या स्टोव की पिन तो माँग ही लेते हैं।     

     गुटके के बारे में अधिक प्रामाणिक ढंग से कहने का अधिकार तो मुझे नहीं है। कोई भोपाली ही प्रामाणिक दस्तावेज पेश कर सकता है। हो सकता है कि गुटका-संस्कृति दिल्ली से वाया लखनऊ भोपाल आई हो। मध्यप्रदेश में तो भोपाल ही गुटका संस्कृति का केन्द्र है। 'जर्दा, पर्दा नामर्दा' का मुहावरा भोपाल के लिए रूढ़ है और यह कीर्ति उसकी बपौती है। नवाबों की संस्कृति में गुटके का आम रिवाज था, पर प्रचलन कुछ खास लोगों या जातियों तक सीमित रहा। आजादी के बाद सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि से गुटके का बड़ा योगदान रहा। अन्य जातियों ने भी इसे बाइज्जत मुँह की इज्जत बना लिया। अब यह सभी जातियों, वर्गों धर्मों, दलों में फैल कर पदार्थ बन चुका है।

       आजादी के बाद गुटका संस्कृति का स्वर्णयुग शुरु होता है। अभी पूरे उत्कर्ष पर है यह संस्कृति। कारण यही कि भोपाल के रास्ते काफी ऊँचे नीचे हैं। ऑफिस भी दूर-दराज पर। सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटना कोई आसान काम नहीं है। चक्कर भी एकाध हो तो ठीक। जैसे तलाक ने एक ही जन्म में अनेक जन्मान्तरों के विवाह सुख को सुलभ करा दिया है, उसी तरह इस जन्म में अनेक चक्करों का योग-कुयोग गले पड़ा हुआ है। चक्करों की माया से राहत पाने के लिए गुटका वरदान साबित होता है। एक तो गुटका खाने के बाद निराशा और टूटन दूर हो जाती है, दूसरे ऑफिसों के चक्कर काटने की हिम्मत आ जाती है। आखिर, बैंच पर बैठे-बैठे करे भी तो क्या? फिर दो अनजाने निराश व्यक्ति भी मिल जाएं तो गुटका संवेदनात्मक रिश्ता तो कायम कर ही देता है। पर गुटका ऑफिस के भीतर भी खूब चलता है। अफसर से लेकर बाबू तक खास से लेकर आम तक, दरबार से दरबान तक। हुँकार का नया शक्तिमंत्र है यह गुटका। यहीं से गुटका संस्कृति का प्रसार होता है। बीड़ी और चिलम ग्रामीण बोध पैदा करते हैं। यों चिलम भरने का मुहावरा भी पुराना हो चुका है। सिगरेट भी बेहिचक पीना जरा मुश्किल है पर गुटका आधुनिकता और समाजवादी प्रगतिशीलता का प्रतीक है।

      गुटका निराशा के दौर में आस्था का संचारक है। शरीर की टूटन जकड़न में शक्ति का लौटालक है। वैर-विरोध में यारी का जोड़क है। काम न बनने की स्थिति में काम- बनावक है। सफर में अनजानों से दोस्ती का संस्थापक है। अपना गुट तैयार करने के लिए गुट निर्माता है। बहस शुरू और समाप्त करने के लिए - अचूक साधन है। साहित्यकार के लिए रचनात्मक आवेश पैदा करने वाला है।

      रहा सवाल गुटका शब्द की व्याकरणिक प्रकृति का।जानता हूँ कि कुछ भाषाविज्ञानी आपत्ति करेंगे। पर साफ है कि मूल शब्द है 'गुट' और प्रत्यय है 'का' 'का' प्रत्यय वाले अन्य शब्द हैं- छुटका, बड़का 'का' यानी वाला, यानी गुटवाला। आप चाहें तो 'का' को सम्बन्धकारक भी कह सकते हैं। जो गुटका खा लेता है, वह उस गुट का बन जाता है। कहा न कि कुछ पण्डित इस व्याकरण-विश्लेषण का विरोध करेंगे। पर इन विरोधियों को भी गुटका खिला दीजिए, चुप हो जाएँगे। दो साहित्यकारों में तीखी बहस चल रही हो तो गाली-गलौज के पहले की स्थिति में गुटका पेश कर दीजिए। सम्बन्ध खराब नहीं हो पाएंगे। अर्थ की दृष्टि से भी व्याकरण-युक्ति गलत नहीं बैठती।

    गुटके में दो चीजें अनिवार्य है- ज़र्दा और चूना। शरीर के लिए चूना यानी कैल्शियम जरूरी है। शरीर व्यवस्था चूने के कारण निरन्तर इजाफा पाती रहती है। लेकिन सामाजिक या हर किस्म की व्यवस्था में चूना जरूरी है। व्यवस्था की हड्डियां चूना लगाने से मजबूत होती हैं। पर चूने का जरूरत से ज्यादा या सीधा प्रयोग शरीर के लिए खतरनाक होता है, जीभ को काट देता है। इसलिए जर्दे का मेल जरूरी है।

     केवल चूना लगा रहे हो तो लोग समझ जाते हैं। ज़र्दे के साथ डाइल्यूट कर दीजिए तो कोई अंगुली नही उठाएगा। यों भी भारत में कोई भी चीज सीधे हजम नहीं होती। पूँजीवाद आए या समाजवाद, अपने हिसाब से हम डाइल्यूट (मिश्रण) कर ही लेते हैं। गुटका हमारी डाइल्यूशन नेचर से भी मेल खाता है। कुछ भी हो, गुटका संस्कृति की बदौलत हिन्दी को एक नया मुहावरा मिला है और आजादी के बाद हर कहीं चूना लगाने की प्रवृत्ति से खुशहाली बढ़ी है।

      जिस तरह किसी धार्मिक कथा के निश्चित फल होते हैं और उनसे आस्था बँधी रहती है, उसी प्रकार गुटके के भी निश्चित फल हैं। यदि अफसर गुटका खाता है, तो आप भी शुरू कर दीजिए। बनाकर तैयार रखिए और खिला कर हस्ताक्षर करवा लीजिए। किसी साहित्यिक गुट में प्रवेश पाना हो तो गुटका दबाइए और - प्रवेश पाइए। यदि कोई आपका विरोधी या निन्दक है तो कबीर की तरह आंगन -कुटी छवाने की जरूरत नहीं। गुटका पेश कर दीजिए। अधिक तारीफ से क्या, अनुभव कीजिए गुटका खा कर खिला कर।

बी. एल. आच्छा

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