विश्वभाषा की ओर हिंदी के बढ़ते कदम : वैश्वीकरण की दिशा में हिंदी

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi and Globalization: वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा - एक अनुशीलन

Globalization and Hindi language

विश्व भाषा की ओर हिंदी : वैश्वीकरण की दिशा में हिंदी

विश्व बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत वसुदैव कुटुंबकम् की भावना भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। हजारों वर्षों पहले ही भारतीय संस्कृति ने इस मंत्र को आत्मसात् कर लिया है। आर्यों से लेकर अंग्रेजों तक अनेक लोग यहाँ आये और हमारी संस्कृति से परिचित होकर उसकी महान गरिमा को पहचान लिए । विभिन्न देशों की संस्कृितियों के श्रेष्ठ तत्व को अपने में समाहित कर उदात्तता प्रदान करने की शक्ति हमारी संस्कृति में है । आजकल भूमंडलीकरण के कारण दुनिया दिन-ब-दिन सिमटती जा रही है। आज कोई ऐसा देश नहीं है जिस पर दूसरे देश का प्रभाव न पडा हो। आज हम विश्वभर के समाचार को तत्काल जान सकते हैं । विश्व की भाषा हिन्दी आज, अरबी, फारसी, संस्कृत, ईरानी, तुर्की, दक्खिनी जैसे देशज एवं विदेशी शब्दों को अपने में समाहित कर एक विराट रूप ग्रहण कर अपनी जड़ों को मजबूत कर रही है। वैज्ञानिक प्रगति एवं औद्योगीकरण के प्रभाव से भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ आज एक दूसरे के निकट आ गई हैं । उनमें लगातार विचारों का आदान-प्रदान होता जा रहा है। आज भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति की एक संवाहिका बन गई है और साथ ही अपनी संस्कृति को भी प्रतिष्ठित करने का दायित्व निभा रही है। अब तक दुनिया में द्वितीय एवं तृतीय स्थान में जो भाषा खड़ी हुयी है, वही आज प्रथम स्थान तक पहुँच गयी है । ऐशिया में चीन और भारत शक्तिशाली देशों के रूप में उभरा है । विश्व के विभिन्न देशों में बसे हुए प्रवासी भारतीयों की संख्या भी आज बढती जा रही है। विश्व में भारत की अपनी पहचान तो है ही । आज 'वैश्वीकरण' और 'आर्थिक उदारीकरण' की स्थिति में मात्र हिन्दी ही संपर्क भाषा की भूमिका निभा सकती है। आज अनेक विदेशी तथा बहु देशीय कंपनियाँ, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को जानने वाले अधिकारियों को नियुक्त करने में विशेष रुचि दिखा रहे हैं। उन्हें यह मालूम है कि यदि भारत के अथाह संभावनाओं वाले 'बाजार' को हस्तगत करना है तो हिन्दी ही उसके लिए सब से सशक्त माध्यम है।

प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से हिन्दी भाषा विश्व के प्रथम दो प्रमुख भाषाओं में से एक है। विश्व के लगभग नब्बे देशों में हिन्दी बोली जाने पर भी इसका क्षेत्र सीमित है। हिन्दी के विकास का प्रमुख कारण यह है कि यह दुनिया की सबसे सरल भाषा है। क्योंकि यह जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी जाती है। अंग्रेजी, फ्रांसिसी, जर्मनी और रूसी भाषाओं में यह तत्व दिखाई नहीं देता है। हिन्दी की और एक विशेषता यह है कि एकरूपता। जहाँ - जहाँ हिन्दी फैली है उसमें एकरूपता दिखाई पड़ती है।

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वर्तमान समय में विदेशों में हिन्दी का प्रचार प्रसार प्राय: दो रूपों में हो रहा है। प्रथम के अंतर्गत वे देश आते हैं, जहां के लोग हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में सीखते और पढ़ते हैं। इसके अंतर्गत रूस, अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, फ्रांस, चैकोस्लोवाकिया, रुमेनिया, चीन, जापान, नार्वे, स्वीडन, पोलौंड, आस्ट्रेलिया, मैक्सिको आदि देश आते हैं। दूसरे के अंतर्गत वे देश आते हैं जहाँ प्रवासी भारतीय और भारतवंशी लोग बड़ी संख्या में निवास करते हैं, जिनकी मातृभाषा हिन्दी रही जो आजकल फिजी, सुरीनाम, गयाना, बर्मा, थाइलांड, नेपाल, श्रीलंका, मलेशिया, दक्षिण आफ्रिका आदि देशों में रह रहे हैं। इन दोनों प्रकार के देशों में हिन्दी का रचना संसार बहुत ही विपुल एवं समृद्ध है। इन लोगों ने यह भी साबित किया कि

"निज भाषा की उन्नति अहै, निज उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल॥"

हमारे भारतीय जहाँ-जहाँ भी गए अपने साथ हमारी संस्कृति, साहित्य और भाषा को भी ले गए। वे जहाँ कही भी रहे अपनी मातृभाषा को नहीं भूले। अपितु उसे अमूल्य निधि के रूप में सुरक्षित रखे थे। वे इस बात को नहीं भृले कि हिन्दी भाषा से ही अपनी संस्कृति को सुरक्षित रख सकते हैं। इसी कारण से फिजी, मारिशस, सुरिनाम, दक्षिण आफ्रिका जैसे देशों में रहने वाले भारत वंशियों के बीच में हिन्दी आज भी मातृभाषा के रूप में बोली जाती है।

विश्व के विभिन्न देशों में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी पढ़ाई जाती है। अन्य विषय अर्थात भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि के शिक्षण की तुलना में भाषा शिक्षण ज्यादा जटिल प्रक्रिया है। प्रवासी भारतीय हिन्दी भाषा को अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा समझकर, उस धरोहर को सुरक्षित रखना चाहते हैं । अमेरीका, यूरोप, रूस आदि देशों में हिन्दी के प्रति शैक्षिक अभिरुचि के साथ प्रयोजन परक दृष्टि भी है । हिन्दी का अध्ययन एवं अध्यापन जिन देशों में हो रहे हैं अपने-अपने देश के अध्यापक एवं शोधार्थियों को हिन्दी के गहन अध्ययन तथा अध्यापन कला में विशेष प्रशिक्षण के लिए भारत भेज रहे हैं। कुछ देश अपने विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्यापन के लिए भारतीय सांस्कृतिक परिषद द्वारा भारतीय विद्वानों को आमंत्रित कर रहे हैं। इस विनियम योजना के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्तियों के आधार पर कई विदेशी विद्यार्थी अध्ययन करने भारत आते हैं।

विगत कुछ वर्षों से हिन्दी भाषा का अध्ययन वैश्विक स्तर पर प्रगति की दिशा में आगे बढ रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थान देने का प्रयास निरंतर जारी रही। आठ विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन आदि के द्वारा हम आज विश्व में हिन्दी की स्थिति को जान सकते हैं। हिन्दी मात्र साहित्य की चीज नहीं वरन वह हृदयों को जोडने वाली ऊर्जा भी है और प्रेम की गंगा भी। (डॉ. कामता कमलेश) भारतीय मूल के हिन्दीतर भाषा-भाषी लोग भी अपने बच्चों के लिए हिन्दी सिखाने का प्रबंध कर रहे हैं। किसी एक संदर्भ में एक व्यक्ति ने अमेरिका में बसे हुए एक भारतीय से पूछा, 'अमेरिका में हिन्दी की क्या जरूरत है, जब भारत के कुछ भागों में ही उसके लिए अधिक उत्साह नहीं।' प्रवासी भारतीय का उत्तर था, 'मेरे अपने विचार से अमेरिका के प्रवासी भारतीयों को हिन्दी की जितनी जरूरत है उतनी शायद 'भारतवासी' भारतीयों को भी नहीं। क्योंकि अगर यहाँ अमेरिका के भारतीय, हिन्दी भूल जाएँगी तो 'रामचरित मानस' भूल जाएगा। प्रार्थनाएँ भूल जाएँगी, आरती भूल जाएँगी, ताजमहल भूल जाएगा, वह संस्कृति भूल जाएँगी, जो हमारों वर्षा से दुनिया का पथ प्रदर्शन करती रही है। प्रवासी भारतीयों के लिए हिन्दी इस संस्कृति का एकमात्र संचार वाहक है। अतः हिन्दी जरूरी है यहाँ । हिन्दी का पठन-पाठन से इस देश में मेरे जैसे कई गृहस्थ जुडे हैं, जो पेशे से हिन्दी नहीं है, अपितु तकनीकी क्षेत्रों के जानकारी है। मेरी राय में यह उत्तर तो ठीक ही है । अतः विश्व में हिन्दी का पठन-पाठन की प्रचार-प्रसार के अनेक कारण कहीं विशुद्ध रूप में ज्ञान की पिपासा, कहीं अपनी अस्मिता बनाए रखने की चिन्ता, कहीं राजनैतिक प्रचार अथवा सामाजिक लाभ की दृष्टि, कहीं सांस्कृतिक संबंधों को दृढतर बनाने की इच्छा कहीं निजी लाभ। जो भी हो, इन सब कारणों से संसार के अनेक देशों में हिन्दी का अध्ययन तथा अध्यापन विविध रूपों में हो रहा है पहले क्षेत्रीय अखिल भारतीय स्तर पर साहित्य का विकास अथवा प्रचार-प्रसार होता था। सन् 1973 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी सम्मेलन आयोजित करने का विचार किया। इसी प्रयास के फलस्वरूप मारिशस के प्रधान मंत्री शिवसागर रामगुलाम की अध्यक्षता में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन नागपुर में संपन्न हुआ। उद्घाटन भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने किया। इस तरह प्रथम विश्व सम्मेलन नागपुर, द्वितीय - विश्व सम्मेलन मारिशस, तृतीय सम्मेलन नई दिल्ली, चतुर्थ सम्मेलन मारिशस, पंचम सम्मेलन ट्रिनिडाड टोबाका, छठवाँ सम्मेलन लंदन, सातवाँ सम्मेलन सूरिनाम परमारिबो, आठवाँ - सम्मेलन- न्यूयार्क में संपन्न हुए।

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विश्व के पत्रकारिता में भी हिन्दी भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। आज विदेशों में भी हिन्दी के कई पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रहे हैं। कविता, कहानी, जैसे मोलिक विधाओं के साथ अनूदित एवं विज्ञापन संबंधी सूचनाएँ भी इनमें छप जाते हैं। फीजी टाइम्स द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी शांतिदूत' साप्ताहिक पत्रिका विदेशी पत्रकारिता के मील का पत्थर बन गया है। मारिशस से प्रकाशित 'वसंत' इंग्लैंड से प्रकाशित 'पुरवाई' अमेरिका से प्रकाशित 'सौरभ' और 'विश्व विवेक' इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। विदेशों में भारतीय संस्कृति एवं जनमानस के प्रति श्रद्धा के कारण भारतीयता को गहराई से समझने की इच्छा ने विदेशियों को हिन्दी साहित्य के अनुवाद के लिए प्रेरित किया। तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी, जैसे कवियों की कविताएं विदेशी भाषाओं में अनूदित हुए हैं। आज व्यापक स्तर पर अनुवाद कार्य हो रहा है। प्रेमचंद का गोदान तो विश्व के प्रायः सारी भाषाओं में अनूदित हो चुका है। प्रसन्नता की बात यह है कि अब हिन्दी साहित्य का अनुवाद मूल हिन्दी भाषा में विदेशियों के द्वारा किया जा रहा है। यह भारतीय संस्कृति के प्रति उनके विश्वास का ध्योतक है।

हिन्दी प्रिंटमीडिया के परिदृश्य में हम यह बता सकते हैं। कि हिन्दी भूमण्डलीकरण की चुनौती से जूझकर, टकराकर आखिर उसके अनुकूल ढलने की तैयारी कर रही है। जब तक भाषा जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगी और उनके लिए अपने को बदलती रहेगी तब तक वह जीवंत रहेगी।

आधुनिक युग में विज्ञापन मानव जीवन पर अपना अभिन्न प्रभाव डाल रहा है। मीडिया विशेष रूप से दृश्य श्रवण माध्यम पर सुनी देखी बातों पर लोग पूरी तरह विश्वास करते हैं। उसे पूरी तरह सच मान लेते हैं। 'गागर में सागर भरने' की शक्ति हर भाषा में होती हैं। अधिक संख्यक लोगों से बोली जानेवाली भाषा होने के कारण यह तत्व हिन्दी में भरपूर है । हिन्दी की मुहावरें और लोकोक्तियाँ जनता पर सीधा प्रभाव डाल रहे हैं, इसलिए, अनेक अंग्रेजी चानल हिन्दी को विज्ञापनों का माध्यम बना लिया।

विश्व मंच पर हिन्दी की भूमिका संगीत और फिल्में से भी जुडी हुई है। भारतीय संस्कृति को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाने में हिन्दी विद्वानों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं। जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, हरिओम शरण जैसे गायकों ने अपने गीत एवं गजलों के माध्यम से विश्व को भारतीयता की महानता को प्रत्यक्ष रूप से दर्शाये हैं । परिणामतः हम से शत्रुता साधने वाले पाकिस्तान जैसे देश भी हमारे साहित्यकारों का आदर कर रही है। साथ-साथ विभिन्न देशों के साहित्य जैसे अरस्तू प्लेटो, शेक्स्पियर, इलियट आदि की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करने के कारण उन देशों की संस्कृति से भी हम अवगत हो रहे हैं। इसी प्रकार बाइबिल, जैसे धार्मिक ग्रंथों का भी अनुवाद करके उनमें निहित सार का संग्रह करके सर्वधर्म हित की कामना कर पा रहे हैं। तद्वारा विश्व के सभी धर्मों के मूल तत्व को पहचान पा रहे हैं।

हिन्दी की फिल्में, गाने, टी.वी. कार्यक्रमों ने विश्व में हिन्दी को इतना लोकप्रिय बनाया है कि केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हिन्दी पढने वाले 67 देशों के विदेशी छात्रों ने इसकी पुष्टि की कि हिन्दी फिल्मी गानों को सुनकर उन्हें हिन्दी सीखने में मदद मिली। यूरोप में कोलाने, बी. बी. सी. ब्रिटिश रेडियो, सनराइज आदि चानलों के हिन्दी सेवा कार्यक्रमों को बड़े चाव से लोग देख रहे हैं । 'आवारा हूँ', 'मुड-मुड के न देख मुड-मुड के', 'मेरा जूता है जापानी', 'दम मारो दम मिट जाये गम', 'चन्दा ओ चन्दा', 'आज रे परदेसी', 'मैं तो खडी इस पार' आदि मन पसंद के प्रचलित गीत है। जिन्हें सुनकर श्रोताएँ आनंद विभोर हो जाते हैं। सन् 1955 के बाद हिन्दी फिल्मों तथा टी.वी. कार्यक्रमों ने विश्वव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की हैं हम आपके हैं कौन, ताल, लगान, कभी खुशी कभी गम, देवदास आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय फिल्में हैं।

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अंतर्राष्ट्रीय पटल पर हिन्दी आज विश्व की एक प्रतिष्ठित और मान्यता प्राप्त भाषा बनी है। वह विश्व के विभिन्न देशों में बसे हुये भारतीयों की संपर्क भाषा भी है। प्रवासी भारतीय हिन्दी को भारतीय अस्मिता का प्रतीक मानते हुए उसकी प्रतिष्ठा के प्रति निरंतर प्रयासरत हैं। लेकिन इसकी भी नितांत आवश्यकता है कि विदेशों में हिन्दी शिक्षण का मूल्यांकन समय समय पर होता ही रहा है। और विदेशियों के लिए हिन्दी भाषा के ऐसे पाठ्यक्रम उपलब्ध कराये जिससे वे चिकित्सा, विज्ञान, इंजनीयरिंग जैसे तकनीकी एवं वैज्ञानिक विषयों को भी सीख सके। आज तो यह विश्व भर में जनभाषा के रूप में प्रचलित है। लेकिन इसके विश्व व्यापी प्रसार के लिए तकनीकी एवं पारिभाषिक तथा कोश ग्रंथों का विस्तृत रूप से उपलब्ध कराया जाय।

हिन्दी भाषा सीखने में 'लिंग' का प्रयोग एवं पहचानने में कठिनाई महसूस होती है । हिन्दी में केवल स्त्री लिंग और पुल्लिंग है, तीसरा 'नपुंसक' लिंग नहीं है। इससे कठिनाई यह होती है कि हिन्दी के महान पंडित भी लिंग के प्रयोग में गलती करते हैं। उदाहरण के लिए टेबुल जैसे निर्जीव वस्तु पुल्लिंग भी है, और स्त्री लिंग भी टेबल अच्छा है, मेज अच्छी है। इसी तरह पुस्तक और किताब । इसमें, 'न्यूट्रल जेण्डर' यानी 'नपुंसक लिंग' को जोडने से लिंग संबंधी कठिनाइयों से दूर हो सकते हैं।

साथ-साथ हिन्दी भाषा की व्यावहारिक शैली में भी सरलता लानी चाहिए। हमें सदा इस विषय को दृष्टि में रखना है कि हम अपनी भाषा को उस समाज बीच में ले जा रहे हैं जो बिलकुल इस भाषा से संबद्ध नहीं हैं। उनकी सुविधा के लिए सरल शब्दों का ही प्रयोग उचित होगा। इतना ही नहीं उनकी भाषा एवं संस्कृति का भी हमें आदर करना ही पड़ेगा।

वैश्विक स्तर पर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में एक और रुकावट यह है कि आर्थिक विषमता। हिन्दी भाषा के प्रचार कार्य के लिए आवश्यक आर्थिक, संसाधना का अभाव है । अतः इस के लिए जारी की जाने वाली निधि को और भी बढ़ाना चाहिए।

हिन्दी भाषा के विकास में हिन्दीतर भाषी लोगों का भी योगदान अविस्मरणीय है। प्राचीन काल से आज तक हिन्दी भाषा केवल एक ही प्रांत तक सीमित न रहकर भारत की भाषा बन गई है और आज विश्व की विभिन्न संस्थाएँ, भाषा बन गई है। देश की विभिन्न संस्थाएँ जैसे उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, चेन्नै, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा आदि संस्थाएँ हिन्दी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। किंतु इनका क्षेत्र केवल भारत तक सीमित न रहें।

इस संदर्भ में मेरा यह सुझाव है कि विश्व स्तर पर हिन्दी परीक्षाओं को आयोजन कर विदेशों में हिन्दी के प्रति रुचि दिखाने वाले विद्यार्थियों को प्रोत्साहित कर सकते हैं। 

वैश्वीकरण में हिन्दी भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है तो हिन्दी भाषा को तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी रूप ग्रहण करना चाहिए। इसका प्रचार-प्रसार सही ढंग से विश्वविद्यालयों तथा विविध प्रकार की संस्थाओं के माध्यम से संपन्न हो सकता है। विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा अध्ययन की परंपरा आज की नहीं है। इसकी बहुत पुरानी परंपरा है। वस्तुतः अध्ययन परंपरा सत्रहवी शती के अंतिम दशक से ही प्रारंभ हुई थी। बीसवी शती तक पहुँचते-पहुँचते विश्व के कई देशों में व्यापक रूप से हिन्दी भाषा का अध्ययन हो रहा है। आज विदेशी विश्वविद्यालय तो हिन्दी भाषा अध्ययन के महत्वपूर्ण केन्द्र बन गए हैं।

भाषा एवं साहित्य सृजन का कार्य मात्र भारत में ही संपन्न नहीं हो रहा है। बल्कि विश्व के कई प्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों के द्वारा भी हो रहा है। आज भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति को भी प्रभावित कर रही है। फिजी के कमला प्रसाद मिश्र, रामनारायण, जोगिन्द्र सिंह, कँवल, सुब्रमणी, मॉरिशस के अभिमन्यु अनन्त, व्रजेन्द्र कुमार भगत 'मधुकर' आदि के योगदान महत्वपूर्ण है।

प्रो. कृष्णकुमार गोस्वामी जी के शब्दों में 'अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी सामाजिक-सांस्कृतिक अतः शक्ति के साथ- साथ अपनी प्रयोजन परक भूमिका को भी लिए हुए हैं। वस्तुतः हिन्दी की यह अतर्राष्ट्रीय भूमिका एक स्वप्न नहीं वरन् वह विश्व मानव की एक वास्तविकता है। जाति, धर्म, वर्ण और राष्ट्र की सीमा से परे हिन्दी प्रेम, अहिंसा, शांति, मित्रता सौहार्द, सहिष्णुता, सेवा, सद्भावना की भाषा के रूप में विश्व में प्रतिष्ठित है मानव जाति का तोड़ने का नहीं आपस में जोड़ने का संदेश देती है।" विश्व भाषा के रूप में हिन्दी की अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हेतु विभिन्न संस्थाएँ तथा व्यक्तियों ने समय-समय पर सुझाव दिया है और दे रहे है।

विश्व के हिन्दी समुदाय को एक सूत्र में बांधने के लिए भारत तथा अन्य देशों के हिन्दी अध्यापकों, हिन्दी अध्यापन केन्द्रों तथा हिन्दी लेखकों का एक विश्व परिचय कोष बनाया जाए।

विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन बहुत लम्बे अन्तराल के बाद न हो, अपितु अल्पावधि में नियत के अनुसार हो। उनके आयोजन के लिए एक विश्व हिन्दी समिति का गठन किया जाए।

भारत से बाहर के विद्वानों ने हिन्दी में जो रचनाएँ की हैं उनके प्रकाशन की व्यवस्था की जाए। उन रचनाओं को हिन्दी साहित्य में समुचित स्थान दिया जाए और उनका समावेश भारत के विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में किया जाए।

विभिन्न देशों के श्रेष्ठ लेखकों को भारत बुलाकर उन्हें सम्मानित तथा पुरस्कृत किया जाए तथा उनकी प्रतिनिधि रचनाओं के संकलन प्रकाशित किए जाए।

भारत से बाहर रहनेवाले हिन्दी प्रेमियों को नवीनतम हिन्दी प्रकाशनों की सूचना आसानी से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाय ।

प्रवासी भारतीय साहित्यकारों को हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थान मिलना चाहिए।

भारत के पाठ्यक्रमों में उन रचनाकारों की रचनाओं को स्थान देना चाहिए।

आदान प्रदान को दृष्टि में रखकर ब्रिटिश कौंसिल की तरह एक संस्था की स्थापना भारत में भी की जाय। जो भारत सरकार और भारतीय जनता के आर्थिक सहयोग से संचालित हो।

उक्त प्रकार की संस्थाओं की शाखाएँ विदेशों में भी हों, जिनके द्वारा भारत और प्रवासी भारतीयों के बीच भावनात्मक संबंध सुदृढ हो जाए।

इन संस्थाओं के लिए अपेक्षित सहायता प्रवासी भारतीय भी कर सके। ऐसी संस्थाओं के लिए अपेक्षित सहायता प्रवासी भारतीय भी कर सकें।

ऐसी संस्थाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति, कला, राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा अन्य विदेशी भाषा के सभी भारतीय विद्वानों को एकत्रित कर हिन्दी शिक्षण के लिए पाठ्यपुस्तकें तैयार की जानी चाहिए।

वहाँ हिन्दी शोध केन्द्रों की स्थापना होनी चाहिए। ऐसे शोध केन्द्रों के लिए कई विद्वान एवं लेखकों द्वारा दिये जानेवाले पुस्तकों को अमुख देशों के राजदूतावासों को अपने-अपने देशों के हिन्दी केन्द्रों को भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए।

वहाँ से प्रकाशित होनेवाले पत्रिकाएँ विश्व विवेक, सौरभ, विश्वा (अमेरिका), वसंत, रिमझिम, इंद्रधनुष, आक्रोश (मारिशस ), पुरवाई (इंग्लैंड), शांतिदूत, स्पाइल या दर्पण (नार्वे) आदि को भारत में नियमित रूप से वितरित करने की व्यवस्था होनी चाहिए। ताकि यहाँ के अध्यापकों एवं विद्वानों को विषय की जानकारी प्राप्त करने के लिए विदेशों में ऐसे विद्यालय खोले जाए जहाँ प्रवासी भारतीयों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें।

भारत में भी प्रवासी भारतीयों के बच्चों के लिए उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्तरीय विद्यालयों की स्थापना होनी चाहिए।

भारतीय एवं भारतीयों के बीच सीधा संबंध स्थापित होने से एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं। गैर सरकारी स्तर पर यह काम सफल हो सकता है।

विदेशों में स्थित सारी छोटी बडी हिन्दी संस्थाओं से पत्राचार, ई- मेल और व्यक्तिगत रूप से निरंतर संपर्क स्थापित करना आवश्यक है ।

विदेशी साहित्यकारों की रचनाओं का अनुवाद भारतीय भाषाओं में होनी चाहिए। वैसे ही यहां के साहित्यकारों की रचनाएँ वहां अनूदित होनी चाहिए ।

प्रवासी हिन्दी लेखकों को यहां आमंत्रित करके यहां के हिन्दी लेखकों से अनुवाद गोष्ठी, सम्मेलन आदि करवाना चाहिए।

विश्व के हिन्दी समुदाय को एक सूत्र में बांधने के लिए यह आवश्यक है कि भारत तथा अन्य देशों के हिन्दी अध्यापकों, हिन्दी अध्ययन केन्द्रों तथा हिन्दी लेखकों का एक विश्व परिचय कोष बनाना चाहिए।

विश्व हिन्दी समिति का गठन भी हो जाये जिसके माध्यम से विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन नियमित रूप से हो जाय। प्रवासी भारतीय लेखकों की रचनाओं के प्रकाशन की व्यवस्था होनी चाहिए। तुलनातमक अध्ययन की आवश्यकता भी है।

आजकल जनता की मानसिक स्थिति पर विज्ञापनों का प्रभाव इतना पड़ गया है कि विज्ञापन के बिना किसी भी उत्पत्ति का बाजार में अस्तित्व ही नहीं हो रहा है। विज्ञापन के सहारे मूल्यहीन वस्तु को भी मूल्यवान बना सकते है। वरना इस वैश्विक बाजार में हम अस्तित्व हीन होकर पीछे पिछड जाएँगे। आधुनिक वैश्विक बाजार में विनिमय करने के लिए विज्ञापन का सहारा लेकर आगे बढ़ना है।

आज की स्पर्धा की दुनिया में हिन्दी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसके लिए हमें भी बदलते परिवेश के साथ दौड़ना पडता है। भूमंडलीकरण का यह युग व्यापार का युग है। एक देश के लिए पडोसी देश बाजार है। इसीलिए हिन्दी को भी इस व्यापारी संसार में एक मुखौटा पहनाना पड़ेगा।

- शेषा रत्नम

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