राजभाषा हिंदी का विकास : दशा व दिशा

Dr. Mulla Adam Ali
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Rajbhasha Hindi Ka Vikas : Dasha aur Disha

Rajbhasha Hindi Ka Vikas Dasha aur Disha

राजभाषा हिंदी का विकास : दशा व दिशा

व्यापक प्रयोग एवं जन लोकप्रियता के कारण हिन्दी भारत की स्वयं सिद्ध राष्ट्रभाषा है; संविधान के अनुसार वह राज-काज की भाषा, अर्थात राजभाषा भी है, परन्तु राजनीति के छल-छंद की धूलि में उसकी छवि धूमिल हो गई है। राजनीति के दांव-पेंचों ने हिन्दी ही नहीं, अपितु संविधान को भी उठाकर ताक में रख दिया है, और भारत की राजभाषा का प्रश्न विवादग्रस्त बना हुआ है। हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए, उसका औपचारिक पद दिलाने के लिए, हिन्दी में साहित्य निर्माण की कम, उसके लोकप्रिय एवं व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता अधिक है।

हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर चिन्तन करने से पूर्व हमें यह विचार करना जरूरी है कि क्षेत्रीय भाषाओं को यदि अलग कर दिया जाए तो समस्त हिन्दी प्रदेश गूंगा ही रहेगा और यदि हिन्दी को वहां से हटा दिया जाए तो जैसे क्षेत्रीय भाषा की प्राण प्रक्रिया ही बाधित हो जाएगी। फिर प्रादेशिक भाषा मृत प्रायः सी लगने लगेगी। इसलिए इन दोनों की स्थिति भी कुछ अलग-थलग नहीं है।

यह एक विडंबना है कि जो हिन्दी हमारी आजादी के आन्दोलन की भाषा, जन भाषा थी, वही हिन्दी आज हिन्दी दिवस जैसे नाटकों की मोहताज हो गई है। यही हाल लगभग भारतीय अन्य भाषाओं का भी है। अंग्रेजी के अनावश्यक दबदबे ने इन समारोहों का स्वरूप ही बदल दिया है। हिन्दी सेवियों के भी दो खेमे बनने लगे हैं। एक खेमा वह है जिनकी आजीविका हिन्दी है और दूसरा वह है जिनकी साधना हिन्दी है। कहा गया है कि साहित्य सेवा और धर्म साधना पर्यायवाची हैं।

आज से दो-तीन दशक पूर्व हिन्दी की पत्रिकाओं के प्रकाशन पर जैसे ग्रहण ही लग गया था। हिन्दी साहित्य की स्तम्भ बनी 'ज्ञानोदय', 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'दिनमान', 'सारिका', 'नई सदी' तथा 'नई कहानी' जैसे उत्कृष्ट पत्रिकाएं भी पाठकों की कमी के बहाने बन्द हो गई। परन्तु आज सुखानुभूति है कि समय ने करवट ली है तथा हिन्दी साहित्य के प्रकाशन की फुलवाड़ी फिर से खिल उठी है। आज पाठक भी संतोष से भरा लगता है कि वह कौन सी पत्रिका अब पढ़ें और कौन सी पत्रिका के लिए पढ़ने का समय फिर निकालें।

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विशेष स्तरीय पत्रिकाओं में हिन्दी अकादमी दिल्ली की पत्रिका 'इन्द्रप्रस्थ भारती', हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद की पत्रिका 'हिन्दुस्तानी', राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर की 'मधुमति', शिक्षा विभाग, राजस्थान, बीकानेर की पत्रिका 'शिविरा', हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला की 'हरिगन्धा', जे.एण्ड. के. अकादमी, जम्मू की 'शीरजा', भाषा एवं संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश, शिमला की 'विपाशा', मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल की 'अक्षरा', भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नयी दिल्ली की 'गगनाञ्चल', संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली की पत्रिका 'संस्कृति', प्रकाशन विभाग नयी दिल्ली की 'आजकल', केन्द्रीय सचिवालय, हिन्दी परिषद, नयी दिल्ली की 'जन भाषा सन्देश', नागरी लिपि परिषद, नयी दिल्ली की 'नागरी संगम', हिमाचल कला, संस्कृति, भाषा अकादमी, शिमला की पत्रिका 'सोमसी', वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर की 'विश्वज्योति' के नाम उल्लेखनीय है।

एक अच्छे पाठक की बुक सेल्फ में नयी दिल्ली से पुनः प्रकाशित 'नया ज्ञानोदय', 'कादम्बनी', 'परिकथा', भारतीय भाषा परिषद की 'वागर्थ', कथा साहित्य और चिन्तन से भरपूर गाजियाबाद से 'कथा संसार', भोपाल से 'पूर्वग्रह', दिल्ली से 'साहित्य अमृत', 'शब्दयोग', देहरादून से 'साहित्य प्रभा' व 'सरस्वती सुमन', पटियाला से 'शब्द सरोकार', लुधियाना से 'अन्यथा', अम्बाला (हरियाणा) से 'शुभ तारिका', दिल्ली से साहित्य-संस्कृति की पत्रिका 'सनद' तथा उज्जैन से 'शोध समवेत' जैसी भारी भरकम पत्रिकाए देखी जा सकती है। हिन्दी के दैनिक समाचार पत्रों ने भी अपने साहित्यिक पृष्ठों/परिशिष्टों के अतिरिक्त भी अलग से विशेषांक यथा नवभारत टाईम्स ने 'दीपावली- 2008', इण्डिया टूडे ने 'साहित्य वार्षिकी', दैनिक भास्कर ने 'भारत कल आज और कल' तथा दैनिक जागरण ने विशिष्ट प्रस्तुति 'पुनर्नवा के अनमोल प्रकाशन पाठकों के हाथों में थमाए हैं।'

नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग तथा साहित्य मण्डल, नाथद्वारा जैसी संस्थाओं ने भी बहुत भारी भरकम कार्य साहित्य के क्षेत्र में किए हैं और अन्य सभाओं में यह अग्रणी भी हैं। इन संस्थाओं ने जहां हिन्दी साहित्य का विपुल भण्डार दिया है, वहीं 'नागरी पत्रिका' (मासिक), 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (त्रै. मा.), 'राष्ट्रभाषा सन्देश' (पाक्षिक), 'माध्यम' (त्रै. मा.), 'सम्मेलन पत्रिका' (शोध पत्रिका) और 'हर सिंगार' (त्रे.मा.) नाथद्वारा, मीरायन (त्रै.मा.) चित्तौड़गढ़ इतिहास दिवाकर (त्रै.मा.) नेरी, हमीरपुर (हि.प्र.) जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया है। इसी कड़ी में वर्तमान में भी अनेकों हिन्दी प्रेमी लोगों ने हिन्दी उन्नति के लिए बहुपयोगी प्रयास किए हैं और हिन्दी सेवी कितनी ही सभाएँ स्थापित की हैं; जो हिन्दी की सृजनता को गतिमान बनाए रखने में बहुत ही सहायक हैं।

पिछले कई वर्षों से हिन्दी साहित्य के सृजन तथा प्रकाशन में आशा से अधिक उत्साह देखा गया है। इस वर्ष कविता संग्रह भी पर्याप्त संख्या में प्रकाशित हुए। अब फिर कविता के प्रबन्ध-धर्मा कविताओं की ओर रुझान बना और कई खण्ड काव्य तथा लंबी कविताएं दिखाई दी। प्रायः कम ही नाटक हिन्दी में प्रकाशित होते हैं, यह वर्ष भी इसका अपवाद नहीं है। आत्मकथा लेखन की ओर भी रुझान बढ़ा है तथा आलोचना / समीक्षा क्षेत्र में भी उसकी भूमि का विस्तार हुआ है। इन सभी का यहाँ विवरण देने पर इस लेख का अधिक विस्तार न हो इसलिए नामोल्लेख करना यहां संभव नहीं है।

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हिन्दी के पत्र-पत्रिकाओं द्वारा भी हिन्दी की विशेष उन्नति हो रही है। भारत सरकार के समाचार-पत्रों के पंजीयक नयी दिल्ली द्वारा वर्ष 2001 के लिए जारी की गई अधिकारिक सूचना के अनुसार उनके कार्यालय में पंजीकृत पत्र-पत्रिकाओं की कुल संख्या 51960 थी; जबकि वर्ष 2000 में यह संख्या 49145 रही है। अन्तिम प्रकाशित सूचना के अनुसार यह संख्या कुल 60374 तथा हिन्दी में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं की संख्या 24000 दर्शायी गई है।' हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की संख्या 23551 दर्शायी गई है। अंग्रेजी के पत्र-पत्रिकाओं की संख्या 7596 तथा अन्य की संख्या 20813 है। सभी 101 देशी भाषाओं में से संख्या के अनुपात से इसका प्रतिशत हिन्दी के लिए 45.32, अंग्रेजी के लिए 14.61 तथा अन्य भाषाओं के लिए 30.07 प्रतिशत बनता है। इनसे लगभग 10 से 15 प्रतिशत तो सीधे ही हिन्दी साहित्य की सेवा में हैं। ' हिन्दी के इन पत्र-पत्रिकाओं में से हिन्दी दैनिक समाचार पत्र 2913, अर्द्ध सप्ताहिक 128, साप्ताहिक 11484, पाक्षिक 3567, मासिक 4734, त्रै मासिक 892, अर्द्धवार्षिक 280, वार्षिक 53 तथा अनियत कालीन 448 हैं। यह कुल संख्या 23999 की बनती है।' दिनोंदिन बढ़ रही यह संख्या 6 से 8 प्रतिशत के बीच कही जा सकती है।

जन संचार माध्यमों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में दूरदर्शन का भी बहुमूल्य तथा उपयोगी योगदान है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार की रिपोर्ट 2008-09 के अनुसार दूरदर्शन 30 चैनलों का संचालन कर रहा है। जिनमें 5 अखिल भारतीय चैनल, 11 क्षेत्रीय भाषा निजी के सैटेलाईट चैनल, 11 हिन्दी क्षेत्र के तथा दो लोकसभा- राज्यसभा और एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रसारण चैनल है।" इसके अतिरिक्त निजी क्षेत्र के भी कई चैनल हिन्दी में प्रसारण कर रहे हैं। अब तो बी.बी.सी. लन्दन के विश्व प्रसिद्ध रेडियो- टी.वी. के वरिष्ठ पत्रकार मार्क टली ने भी खुले मन से अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि हिन्दी विश्व की भाषा है और विश्व में कहीं भी हिन्दी में बोलने में गर्व का अनुभव होता है।

पिछले लम्बे समय से ही हिन्दी की जड़ें केवल भारत ही नहीं विदेशों में भी फैल चुकी हैं। जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में पिछले लगभग 75 वर्षों से हिन्दी का पाठ्यक्रम चल रहा है। ओसाका विश्वविद्यालय में 30 वर्षों से हिन्दी पढ़ा रहे डॉ. तोमियो मिजोका का कहना है कि हिन्दी में उन्हें शुरु से ही रुचि थी। परन्तु इसी विश्वविद्यालय के एक अन्य प्रोफेसर डॉ. धर्मपाल का कहना है कि जापानियों में हिन्दी के प्रति सम्मान तो बहुत है, पर वहां जापान में यह धारणा है कि जब भारत से हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी का वर्चस्व है तो हम किसलिए हिन्दी सीखें। उनका यह कहना है कि हिन्दी को यदि संयुक्त राष्ट्र में कामकाज की भाषा बनाना है, तो सबसे पहले भारत में उसे राजकाज की भाषा बनाना होगा।

संसार के विभिन्न देशों में बसे हुए भारतीयों की संख्या लगभग दो करोड़ की आंकी गई है। उन्होंने आर्थिक सम्पन्नता तो अर्जित की ही है, अपितु वहां के सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर भी छाप छोड़ी है। जब साहित्य की बात आती है, तो हिन्दी तथा अन्य किसी भारतीय भाषा में लिखने वाले विदेश में बसे किसी भारतीय लेखक के संबंध में कुछ लोगों को छोड़कर बहुत कम सुनने को मिलता है। किन्तु अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, नार्वे, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क तथा मारीशस जैसे अनेक देशों में भी भारतीय मूल 'के लेखक हिन्दी और अपनी अपनी भाषाओं - में साहित्य सृजन कर रहे हैं; परन्तु इसका समुचित ज्ञान हमें यहां ठीक से प्राप्त नहीं होता।

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भारतीय अप्रवासियों से जब अमेरिका, यूरोप के विभिन्न देशों तथा अफ्रीका आदि देशों में यह पूछा जाता होगा कि आपके देश की भाषा का नाम क्या है, क्या वे अपने उत्तर में अंग्रेजी को अपने देश की भाषा बताते होंगे? तब उन्हें पीड़ा भी जरूर सताती होगी कि वे एक ऐसे राष्ट्र के वासी हैं जिसकी जनसंख्या एक अरब से भी ऊपर हो गई है, राजनीतिज्ञों की खिलवाड़ से देश की भाषा- समस्या अब तक विवादग्रस्त बनाकर रखी गई है। ऐसी स्थिति में उन्हें यह बात भ याद आती होगी कि उनके देश की सर्वमान्य भाषा हिन्दी ही है। जब उनके सामने यह तथ्य आता होगा कि संसार की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का तीसरा स्थान है, तब उनकी आंखें खुलती होंगी और उन्हें यह गौरवमय अनुभूति भी होती होगी कि भाषा की दृष्टि से भी उनका देश भारत दुनियां के मानचित्र पर अग्रणी स्थान रखता है। मंदारिन (चीनी) भाषा का प्रमुख क्षेत्र चीन तथा ताईवान है, जहां इस भाषा को 1024 करोड़ लोग बोलते हैं तथा ब्रिटेन अमेरिका कनाडा, आयरलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड के 497 करोड़ लोग अंग्रेजी बोलते है; जबकि अकेले भारत के ही 476 करोड़ लोगों की भाषा हिन्दी है।"

ईस्वी सन् 2006 में भाषाविद् डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अपने 'भाषा अध्ययन शोध-2005' में दावा किया है कि विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है, जो कि 100 करोड़ से अधिक है। वर्तमान में एक करोड़ 30 लाख भारतीय मूल के लोग विश्व के 132 देशों में बिखरे हुए हैं। इनमें से आधे से अधिक लोग हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। यह भारतीय अप्रवासी अपने अन्दर तो हिन्दी के इस गर्व को संजो कर रखे हुए हैं, परन्तु इसे प्रदर्शित करने का अधिकार शायद राजनीतिज्ञों ने इनसे छीन लिया है। स्वाधीन भारत के लोगों की अपनी कोई राजभाषा न हो यह देश के लिए लज्जा की बात है। विदेशों के 144 विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण की व्यवस्था है। हिन्दी यूनोस्को की एक अधिकारिक भाषा है। यूनेस्को द्वारा शिक्षा, विज्ञान, सांस्कृतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रकाशनों का हिन्दी अनुवाद कराया जाता है। विश्व पटल पर हिन्दी को सम्मानजनक स्थान दिलाने तथा व्यापकता प्रदान करने की दृष्टि से अब तक सात विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं।

देश के 26 करोड़ लोगों ने भारत में ही एक अलग भारत बना लिया है वृहत्तर भारत की चिन्ता केन्द्र को होनी चाहिए परन्तु वह भी भारत को अलग-अलग खण्डों में देखना चाहता है। तभी वह अपनी गद्दी सुरक्षित समझ सकता है । परन्तु किसी भी अवस्था में हिन्दी और उसके साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। हिन्दी भारत की ताकत रही है। हर परिवर्तन को आत्मसात करना उसे आता है जो रखने योग्य नहीं है, उसको बाहर करना भी उसे आता है। हिन्दी भारतीय भाषाओं, बोलियों और विश्व की भाषाओं से तमाम तरह के शब्द, व्यंजनाएं, मुहावरे और बहुत सारी चीजें लेकर पुष्ट हो रही है।

यह संतोष का विषय है कि भारतीय संसद द्वारा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के रूप में वर्धा में स्थापना की जा चुकी है। मुख्यत: भारत में एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय तथा मॉरीशस में विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना तथा हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्रदान करने के प्रस्ताव पारित किए गए हैं। हिन्दी के संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने में भी अब अधिक विलंब नहीं है।

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यह सुखद समाचार है कि अंग्रेजी वर्चस्व देशों में भी हिन्दी की बेल फल-फूल रही है। कथा (यूके) सभा लंदन में ऐसी गोष्ठियां लगातार आयोजित करती रहती हैं, जिसमें हिन्दी, उर्दू और पंजाबी के एक-एक रचनाकार रचना-पाठ करते हैं और तीनों भाषाओं के पाठक श्रोता- तीनों लेखकों की रचनाओं पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। पिछले कुछ बरसों से ये गोष्ठियां लंदन में काफी लोकप्रिय हुई हैं और अब ब्रिटेन के दूसरे शहरों की संस्थाओं के साथ मिलकर ऐसी गोष्ठियां आयोजित करने की कोशिश हो रही है।

कवि-कथाकार तेजिंदर शर्मा ने 'कथा' (यूके) की ओर से दिए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान के माध्यम से लंदन में हिन्दी का गौरव बढ़ाया है। पिछले वर्ष जब असगर वजाहत को उनके उपन्यास 'कैसी आग लगाई' के लिए बारहवां 'अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' ब्रिटिश संसद के उच्च सदन 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स' में दिया गया, तो यह हिन्दी के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी के प्रवेश से काफी पहले ब्रिटिश संसद में हिन्दी पहुंच जाएगी। यह सिलसिला वर्ष 2007 में जारी रहा, इसी बीस जुलाई (वर्ष 2007) की शाम 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स' में ब्रिटेन के आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री टोली मैक्नल्टर्टी ने हिन्दी की युवा भारतीय लेखिका को उनके पहले ही उपन्यास 'मैं बोरिशाइलला' के लिए तेरहवें 'अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाजा।

यह तो सभी जानते मानते हैं कि हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में हिन्दी फिल्मों की बड़ी भूमिका है। लेकिन 'कथा' (यूके) में नाटकों के माध्यम से हिन्दी साहित्य को लोगों तक ले जाने का काम शुरु किया है। जापान के तोमियों मिजोकामी तो नाटकों के माध्यम से हिन्दी शिक्षण को लोकप्रिय बनाते रहे हैं। ब्रिटेन में इन नाट्य-प्रदर्शनी में गैर हिन्दी बहुभाषी समाज दर्शक होता है। यह एक बहुत ही सफल तरीका है, जिसमें लोगों को कहानी और नाटक दोनों का आनंद मिलता है। यहां कहानी पढाने की बजाय दिखाई जाती है। वरिष्ठ रंगकर्मी देवेंद्रराज अकर की इस खोज 'कहानी का रंगमंच से ब्रिटेन वालों को भी लाभ मिल रहा है।

यह कह देना आसान है कि हिन्दी वालों को उर्दू सीखनी चाहिए और उर्दू वालों को देवनागरी, पर क्या यह इतना आसान है ? आज जबकि हिन्दी इलाके की नई पीढ़ी भी हिन्दी सीखने को तैयार नहीं, तब उर्दू तो जैसे बेमौत मरती जा रही है। जयपुर से निकलने वाली एक पत्रिका 'शेष' (संपादक - हसनजमाल) का उदाहरण हमारे सामने है, जिसमें उर्दू साहित्य देवनागरी लिपि में छपता है।'

आज के कम्प्यूटर युग में सूचना प्रौद्योगिकी मामले में विश्व में विशेषता प्राप्त करने वाला भारत अब अपने यहां इसे जन-जन तक पहुंचाने के प्रयास में जुट गया है। इस प्रयास के अन्तर्गत सूचना प्रौद्योगिकी विभाग स्थानीय भाषा में भरपूर उपयोग के लिए हिन्दी भाषी राज्यों में 'हिन्दी सॉफ्टवेयर टूल्स एण्ड फांट' मुफ्त वितरण कर रहा है। सूत्रों के अनुसार हिन्दी सॉफ्टवेयर (सी.डी.) को मुफ्त दिए जाने के बाद अब प्रादेशिक भाषा पंजाबी में सॉफ्टवेयर को प्रोत्साहित करने का उद्यम किया जा रहा है।" राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने एक वेबसाईट भी लांच की है; जिसमें मुफ्त जन वितरण के लिए जारी सॉफ्टवेयर टूल्स और फोंट्स के बारे में पूरी जानकारी है। वेबसाईट के माध्यम से पंजीकरण कराने वाले सभी आवेदकों को उनके पते पर साफ्टवेयर की सी. डी. निशुल्क भेजी जायेगी।

आज अन्तर्जाल (इन्टरनेट) मानव जीवन का आकर्षक और जरूरी अंग बनकर रह गया है। अब इन्टरनेट केवल कंप्यूटर ही नहीं, मोबाईल फोन में भी अधिकार कर बैठ गया है। कुल इन्टरनेट प्रयोगकर्ताओं में से 44 प्रतिशत ने हिन्दी वेबसाइटों के प्रति उत्साह जताया, जबकि 25 प्रतिशत उपभोक्ता अन्य भारतीय भाषाओं में इन्टरनेट पर कामकाज के प्रति उत्सुक दिखे हैं। अंग्रेजी को हिन्दी की विकास यात्रा को जानने के लिए इन्टरनेट पर आनेवाले ब्लॉग्स (चिट्ठाकारी) को जानना भी ज्ञानवृद्धि कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया के चालू होने के लगभग छः- सात वर्ष के बाद हिन्दी में लगभग 12 हजार से ज्यादा ब्लॉग्स, एक हजार से ज्यादा वेबसाइट 50 हजार से ज्यादा विकि पेज है और 12 लाख से ज्यादा पत्र इन्टरनेट पर लिखे जा चुके हैं। यह हकीकत है कि आज अन्तर्जाल पर हिन्दी फर्राटे से दौड़ रही है। ऐसे में जरुरी है कि इन्टरनेट पर हिन्दी के प्रयोग, उसके स्वरूप और अन्तर्वस्तु पर ठीक से विचार किया जाए।

उन लोगों के लिए अच्छी खबर है, जो किन्हीं कारणों से कान्वेंट या इंग्लिश मीडियम स्कूलों से नहीं पढ़ सके, लेकिन मौजूदा दौर की जरूरतों के मद्देनजर उच्च व्यावसायिक शिक्षा हासिल करने की तमन्ना रखते हैं। खास कर एम. बी. ए. और बी.बी.ए. जैसे रोजगारपरक कोर्स करने के लिए अब वे अंग्रेजी भाषा के मोहताज नहीं होंगे। उनके लिए इस पढ़ाई का रास्ता हिन्दी के जरिए भी खुलेगा।

हिन्दी भाषी छात्रों के लिए यह नई पहल केंद्र सरकार के अधीन संचालित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्व- विद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) की है। मंशा उच्च व्यावसायिक शिक्षा के साथ ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार की भी है। सूत्रों के मुताबिक विश्वविद्यालय के दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम के जरिए इसके लिए फिलहाल देश के साढ़े तीन सौ जिलों में केंद्र खोलने की योजना है। विश्वविद्यालय उन जिलों में किसी कॉलेज को अपना केंद्र बनाएगा, जहां हिन्दी में एम.बी.ए. और बी. बी.ए. की पढ़ाई के लिए छात्र रजिस्ट्रेशन करा सकेंगे। छात्रों को पाठ्य सामग्री (पुस्तकें आदि) विश्व विद्यालय उपलब्ध कराएगा। सूत्रों के अनुसार विश्व विद्यालय के लिए इंडिया नॉलेज कॉरपोरेशन एम. बी. ए. (मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) और बी.बी.ए. (बैचलर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) के पाठ्यक्रम को हिन्दी में तैयार कर रहा है। ये केंद्र विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों की पढ़ाई भी करा सकेंगे, जबकि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए शब्द कोष (डिक्शनरी) व व्याकरण पर भी वहां काम होगा।'

हिन्दी के प्रति अरुचि और अंग्रेजी के प्रति रुझान का कारण हिन्दी में विज्ञान साहित्य की कमी काफी लोगों का एक बहुत बड़ा बहाना है। हिन्दी में विज्ञान साहित्य की दशा और दिशा की ओर भी विशेष ध्यान देकर इस पर चिन्तन करना अति आवश्यक है। हिन्दी में विज्ञान साहित्य की दशा एक ता निश्चित ही हिन्दी की दशा पर निर्भर करती है और दूसरे विज्ञान की दशा पर यह तो स्पष्ट है कि भारत अंग्रेजी की गुलामी के कारण न केवल अपनी भाषाओं में विज्ञान प्रौद्योगिकी और नोबेल पुरस्कारों में पिछड़ा है, वरन आत्म सम्पन्नता में और विश्व में सम्मान में भी पिछड़ा है। तब इसमें क्या आश्चर्य है कि वह विज्ञान साहित्य में भी पिछड़ा है।

हिन्दी की प्रगति में जुटे हिन्दी प्रेमी वैज्ञानिकों ने एक और अद्भुत सफलता प्राप्त की है। तैयार किए गए सॉफ्टवेयर के अनुसार किसी भी प्रादेशिक, देशी, विदेशी भाषा में जो भी टाईप किया जायेगा, वह दूसरे कम्प्यूटर में स्वयं ही हिन्दी में टाईप हो जायेगा। अन्य सफल प्रयोग से कोई भी विदेशी अब इन्टरनेट में हिन्दी भाषा ही नही बल्कि हिन्दी के 'विश्वकोष' को भी देखा जा सकेगा; जो नागरी प्रचारिणी सभा, द्वारा प्रकाशित हजार पृष्ठों का संकलन है।

हिन्दी के प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'दैनिक जागरण' के खाते में देश का पहला 'हिन्दी न्यूज वैप पोर्टल' उतारने की उपलब्धि भी जुड़ गई है। वैप पोर्टल वो साइट होती है, जो खासतौर पर मोबाइल फोन के लिए तैयार की जाती है। लिहाजा अब आप भारत में वैप सुविधाओं से युक्त हैंडसेट से और किसी भी आपरेटर की सेवा के साथ जागरण की वैप साइट 'डब्लूएपी जागरण कॉम' पर जाकर ताजातरीन खबरों का आनंद ले सकते हैं। इस वैप पोर्टल पर आगे संस्करण के आधार पर सामग्री व सिटीजन जर्नलिज्म जैसी कई सुविधाएं जोड़ी जाऐंगी।

वैश्विक बाजार के चाहे कितने ही दुष्परिणाम गिनाए जाएं, उसका एक ही लाभ उन सब से ऊपर स्थापित होने का प्रयास है कि उसके कारण हिन्दी भाषा आज वैश्विक पटल पर छा रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति कहते हैं। कि 'हिन्दी सीखो और भारत के साथ व्यापार करो।' इससे पूर्वी देशों में हिन्दी सीखने की होड़ सी लग गई है। ऐसे वातावरण में हिन्दी को केवल सरकार के भरोसे छोड़ना भी खतरनाक होगा। हिन्दी जब जनता और उसके हितों से जुड़ेगी, तभी इसका हित सुनिश्चित हो पाएगा। हिन्दी बाजार से जुड़ गई है; अब इसे बाजार पर पूर्ण कब्जा करने के लिए तकनीकी स्तर पर भी तैयार कीजिए, ताकि इसे अमेरीकी-अंग्रेजी की तरह बाजारु न बना दिया जाए।

125 के लगभग विश्वविद्यालयों में पढाई जाने वाली हिन्दी भाषा को केवल साहित्य ही के साथ नहीं बल्कि ज्ञान के साथ अनिवार्यतः जोड़ना होगा तभी हिन्दी को अपेक्षित सम्मानित स्थान प्राप्त करवाया जा सकेगा। चिकित्सा का क्षेत्र हो या अभियांत्रिकी का, निजी व्यावसाय का क्षेत्र हो या सरकारी अथवा अर्द्धसरकारी संस्थानों का, कला का क्षेत्र हो या विज्ञान का हमें सारे क्षेत्रों की मांग के अनुसार हिन्दी भाषा को समृद्ध करने का अवसर नहीं चुकना चाहिए। इस समृद्धि से अंग्रेजी के गुलाम हुए छात्र - छात्राओं को भी अंग्रेजी से मुक्ति मिलेगी। उनका भी अपने देश की भाषा की ओर आकर्षण बढ़ेगा। हिन्दी भाषा को समृद्ध करने का प्रयास ही हमारी सच्ची राष्ट्रभक्ति होगी।

संदर्भ:

1. पुस्तकालय, श्री अंगिरा शोध संस्थान, जीन्द (हरियाणा)

2. जागरण वार्षिकी- 2007, जागरण प्रकाशन लि. कानपुर, पृष्ठ-300

3. जागरण वार्षिकी - 2008, जागरण प्रकाशन लि. कानपुर, पृष्ठ-267

4. जागरण वार्षिकी - 2007, जागरण प्रकाशन लि. कानपुर, पृष्ठ-3015. उपरोक्त पृष्ठ 300

6. मनोरमा इयर बुक - 1999, पृष्ठ 416

7. जकिया जुबैरी, रुबरु, राष्ट्रीय सहारा, नयी दिल्ली, 12 अगस्त, 2007

8. एक समाचार, दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़

9. राजेश्वर सिंह, दैनिक जागरण, हिसार, 8 दिसंबर, 2008

10. एक समाचार, दैनिक जागरण, हिसार, 14 जनवरी, 2009

- रामशरण युयुत्सु

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