सांप्रतिक हिंदी कहानियों में जाति भेद भावना

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Kahaniyon Mein Jaati bhed bhav

सांप्रतिक हिंदी कहानियों में जाति भेद भावना

जाति-भेद-भावना भारतीय सामाजिक व्यवस्था की एक विकृति रही है। समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं, चिंतन- पद्धतियों, उदात्त विचारों, मानवतावादी दृष्टियों, आस्थाओं, विश्वासों आदि के रहते हुए भी यह विकृति भिन्न स्थितियों में सामाजिक जीवन को कुप्रभावित करती रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमने जहां उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है वहां सामाजिक व्यवस्थाओं में हम बहुत सीमाओं तक गतानुगतिकता को ढो रहे हैं। जाति-भेद-भावना हमारे संस्कारों में इतनी गहरे पैठी है कि हम इसे विघटनकारी तत्त्व मानते हुए भी त्याग नहीं पाते हैं। पुरोहितवादी धार्मिक व्यवस्थाओं में यह भावना सामाजिक अनुष्ठानों में ऊंच-नीच का भेद-भाव करती रही है। पूर्व जन्म के कर्मों से भी इसे युक्त किया गया है। स्वतंत्रता- प्राप्ति के पश्चात् लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां यह भावना शेष हो जानी चाहिए थी वहां सत्ता केन्द्रित राजनीतिक दांव-पेंच, उठापटक, बंदर-बांट, घरभर, पारिवारिक प्रभुत्व आदि के चलते यह दृढ़ ही होती गयी है। प्रायः सभी राजनीतिक दल समाज को जातियों में विभाजित रखने में ही अपना हित देखते हैं। लोक सभा, विधान सभाओं और स्थानीय निकायों के चुनावों में जाति आधारित राजनीतिक निर्णय लिये जाते हैं। दलित, पिछड़ा वर्ग, निम्न वर्ग आदि कहकर जिन समुदायों के वोट बटोरे जाते हैं उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थितियों में अंतर नहीं आता, चुने गये प्रतिनिधियों का प्रभुत्व अक्षुण्य बना रहता है। पिछले दो दशकों की राजनीतिक गतिविधियों ने सामाजिक व्यवस्था में जितना विघटन किया है उतना धार्मिक और सांस्कृतिक क्रिया-कलापों ने भी नहीं। गांवों में तो भिन्न व्यवस्थाओं के केन्द्र में जाति-भेद-भावना ही रहती है। विडम्बना है कि एक ओर हम विश्वग्राम की कल्पना कर रहे हैं दूसरी ओर निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु जाति-भेद-भावना को पुष्ट कर समाज को ही विघटित कर रहे हैं। साम्प्रतिक हिन्दी कहानियों में भिन्न स्थितियों में इस विघटन को दर्शाया गया है।

रत्न कुमार सांभरिया की 'सवाखें' का नेत्रहीन अब्राह्मण जमन वर्मा नेत्रहीन ब्राह्मण वीभा शर्मा से विवाह कर लेता है। जमन वर्मा नेत्रहीन बालकों के विद्यालय में शिक्षक है और वीभा शर्मा सम्पन्न ब्राह्मण परिवार की मातृहीना बेटी है। इस विवाह, में विद्यालय के संस्थापक श्यामा शर्मा का भी आशीर्वाद रहा।

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इन्हीं श्यामा शर्मा के सहयोग से वीभा शर्मा के पिता तथा दो भाई एक दिन जमन वर्मा की अनुपस्थिति में वीभा शर्मा को बलपूर्वक घर वापस ले जाते हैं। संयोग से वीभा शर्मा श्यामा शर्मा की रिश्तेदार निकल आयी। विकलांग देवत के सहयोग से जमन वर्मा पुलिस में एफ. आई. आर. लिखाता है। कोई कार्यवाही नहीं होती। देवत पत्रकार झा पर विश्वास कर समाचार पत्र में मामला देता है। श्यामा शर्मा के द्वारा दी गयी रिश्वत पाने पर झा माम को विपरीत मोड़ दे देता है। देवत के नेतृत्त्व में विकलांग संगठित होकर श्यामा शर्मा और उनके सहयोगियों के विरुद्ध आंदोलन करते हैं। जाति-भेद-भावना को भड़काने के लिए उनकी घोर भर्त्सना करते हैं। विजय की 'एक नाम सूरजमुखी' का शंख चौदह वर्ष की सजा काटकर जब कारावास से बाहर आता है तब पाता कि उसके गांव में उसका मकान, खेत कुछ नहीं रह गया है। वे गिरवी पड़े थे। माता-पिता भी नहीं रहे थे। दण्डभोगी होने के कारण उसे कहीं नौकरी नहीं मिली। कॉलेज में पढ़ते समय छात्र संघ के चुनावों की राजनीति में शंख को साथी सत्तील की हत्या के झूठे आरोप में फंसाकर सजा दिलवा दी गयी थी। बेरोजगारी में भटकते हुए उसकी भेंट सरजू की सास से हो गयी। उससे उसे गहरी आत्मीयता मिली। सरजू विधवा थी और सास के साथ ही पार्क की सफाई का काम करती थी। शंख भी उनके साथ रहता हुआ सफाई काम करने लगा। सास के कहने पर उसने अछूत सरजू से विवाह कर लिया। अपनी जाति बदलने का उसे कोई दुख नहीं था। भग्न हृदय शंख को सरजू और उसकी सास से मिले प्रेम और स्नेह ने जाति बंधन विशेषतः सवर्ण और अछूत के भेद को मिटा दिया। शंख के लिए अछूत सरजू और उसकी सास अधिक अपने सिद्ध हुए। सवर्णों ने तो उसके गांव की जमीन और खेतों पर अपना अधिकार कर लिया था। सुशांत सुप्रिया की 'अनार्याणां प्रवेश : निषिद्ध" के पंडित ओंकारनाथ और उनके वेटे शंकर में उच्च जाति का होने का दर्प है। निम्न जाति के लोगों से वे घृणा करते हैं। एक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल शंकर के प्राणों की रक्षा के लिए 'ओ नेगेटिव ब्लड' की आवश्यकता होती है। बहुत प्रयत्न करने पर भी ब्लड प्राप्त नहीं होता। संयोग से सफाई कर्मचारी का ब्लड ग्रुप मिल जाता है। शंकर को वही दिया जाता है। उसके जीवन की रक्षा होती है। पंडित ओंकारनाथ का दर्प टूटता है। कहानी दर्शाती है कि ऊंच-नीच की विभाजक कृत्रिम रेखाएं आपत्ति की स्थितियों में सहज ही मिट जाती हैं। संजय पुरोहित की 'सलमा का प्रसाद" के पंडित देवनारायण मंदिर में बच्चों की पंक्ति में प्रसाद लेने के लिए खड़ी सलमा को देखकर उसे भला-बुरा कहते हैं। उनके विचार में विधर्मी नीच जाति होता है। उसका मंदिर में प्रवेश निषिद्ध है। स्वप्न में जब वे देखते हैं कि मंदिर से कृष्ण की प्रतिमा लुप्त हो गयी है तब अनिष्ट की आशंका से डर जाते हैं। अपराध बोध से ग्रस्त वे सलमा से क्षमा याचना करते हैं, उसे मिठाई खिलाते हैं, मंदिर में रोज आकर प्रसाद लेने को कहते हैं। उनका मन शुचिता से भर जाता है। अकील कैस की 'तिर्यक रेखा'' के पंजाबी बुजुर्ग वाबा धर्म-भेद तथा जाति-भेद को ठुकराकर संयोगवश मिले सोहराब को अपने पास रखते हैं। उसे भरपूर स्नेह देते हैं। उसे व्यवस्थित करते हैं। उसे सौरभ कहते हैं। बाबा की मृत्यु पर सोराब ही उन्हें मुखाग्नि देता है। बाबा की दृष्टि में मानवता धर्म और जाति से बढ़कर हैं।

अमन चक्र की 'आश्रय'" की दलित वर्ग की असहाय भटकती हुई निर्मला को इंजीनियर विनोद सहारा देता है। उसे बहन की तरह रखता है। गांव के सवर्णों ने निर्मला के दलित पिता की हत्या करवा दी थी। उसकी मां को भी जला दिया था । उसकी जमीन हड़प ली। पिता के एक मित्र की सलाह पर वह गांव से भाग आयी। उसने बताया कि गांव में सुवर्णों का दलित लोगों के प्रति व्यवहार अत्यंत अपमान जनक, कटुतापूर्ण और अमानवीय होता है। मोहन दास नैमिशराय की 'पुष्पा" की धोवी जाति की पुष्पा संघर्षरत रहते एम.ए. करती है। वह केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका भी हो जाती है। उप प्रधानाचार्य शर्माजी उसे दलित वर्ग की होने से उपेक्षा से देखते हैं। वे उसे भोगना भी चाहते हैं। विद्यालय के चपरासी दीपू काका के बेटे अजय और पुष्पा में पारस्परिक आकर्षण बढ़ता है। अजय उसी विद्यालय में हैड़ क्लर्क है । पुष्पा के माया के सहयोग तथा प्रधानाचार्या सरला माहेश्वरी के आर्शीवाद से अजय और पुष्पा का विवाह हो जाता है। कहानी दर्शाती है कि दलित जाति के युवक-युवतियों में भी आगे बढ़ने का उत्साह है। डॉ. (सुश्री) लीला मोदी की 'गुड़ला " की यशोदा गुर्जर छिपछिपाकर देवकी मीणा के नवजात शिशु के लिए दूध लेकर जाती है। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन के दौरान गुर्जरों ने दूध बेचना बंद कर दिया है। गुर्जर और मीणा जाति के लोगों में आपस में तनातनी है। संकट की ऐसी घड़ियों में यशोदा का देवकी के बच्चे के लिए दूध लेकर जाना नारी की ममता को दर्शाता है। यह ममता किमी जाति-भेद को नहीं स्वीकारती। डॉ. महीप सिंह की "सफाई" की सफाई करनेवाली अछूत बेला के विवाह में सम्मिलित होने के लिए फ्लैटों में रहने वाले उच्च जाति के लोगों के बीच बहस होती है। अनेक सवर्ण अछूत के विवाह में सम्मिलित होने में अपनी जाति का अपमान मानते हैं। जाति- भेद-भावना मन में इतनी गहरी पैठी रहती है कि महानगरों के अपेक्षाकृत व्यापक सोचवाले व्यक्ति भी उससे मुक्त नहीं हो पाते। काल कौशल की 'संतर पर किसने सोचा है" में गहराया गया है कि वोट बटोरने की राजनीति ने पूरे देश में जाति-भेद- भावना का विष घोल दिया है। राजनीतिक दल जातीय समीकरण के आधार पर चुनाव क्षेत्रों के लिए प्रत्याशियों को चुनते हैं। यही नहीं, सरकार के गठन के समय भी अगड़े-पिछड़े की चेतना जागृत रहती है। राजनीति के इस रूप ने सामाजिकों के मन में कटुता भर दी है।

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अमरकांत की 'सवालों के बीच लड़की" की भड़भूजे जाति की मेधावी किशोरी जानकी को गणित विषय में किसी अध्यापक की सहायता की आवश्यकता है। सहेली रामप्यारी के कहने पर वह एक कॉलेज के सेवानिवृत्त गणित के प्रोफेसर के पास जाती है किंतु प्रोफेसर की पत्नी द्वारा अपमानित होती है। अपने अध्यापक पिता के कहने पर वह कस्बे के दूसरे गणित प्रोफेसर के पास जाती है। अपनी सहेली रामप्यारी से कहती है कि वह सीखे हुए को अन्य लडकियों को सिखायेगी। वह ऐसे किसी व्यक्ति से कोई सहायता नहीं लेगी जो उसके स्वाभिमान पर चोट करे। दिलीप कुमार की 'बिरादरी अवाक' 12 के ठाकुर जाति के धनवान आपदाहरणसिंह ने यादव जाति के अधिकारी चन्द्रमासिंह से मित्रता बढाकर बैंक अधिकारी होने जा रहे उनके पुत्र सूर्यकांत से अपनी चौथी बेटी का विवाह निश्चित कर दिया। विवाह के समय लोगों को पता चला कि चन्द्रमासिंह ठाकुर नहीं यादव है। ठाकुरों ने इस विवाह का विरोध किया किंतु आपदाहरणसिंह ने बड़ी चतुराई से उसे शांत कर दिया। ठाकुर ने स्वार्थसिद्धि के लिए योजना बद्ध रूप में यह संबंध तय किया था। उन्हें बैंक अधिकारी दामाद मिल गया और एक प्रभावशाली अधिकारी समधी जो उनकी धनवृद्धि में सहायक होगा। स्वार्थ- सिद्धि के लिए जातिदर्प से दमदमाते लोग भी जाति-भेद को भुला देते हैं। शारदायादव की 'संघर्षमय जीवन'" की ब्राह्मण जाति में जन्मी शक्तिबाला का बी.एड. की पढ़ाई करते हुए निम्न जाति म्हार के एम. ए. करते हुए युवक से प्रेम हो गया। माता- पिता के विरोध के बावजूद शक्तिबाला ने प्रशांत से विवाह कर लिया। मायके से उसके संबंध टूट गये। उसने दो बेटों को जन्म दिया। कार दुर्घटना में प्रशांत की मृत्यु के पश्चात् उसका जीवन संकटपूर्ण हो गया। उसके ससुर की भी मृत्यु हो गयी। सास के दुर्व्यवहार से तंग आकर वह मायके आ गयी। पिता की मृत्यु के पश्चात् भाई-भाभी के अनुदार व्यवहार से पीड़ित होकर वह मां को लेकर अलग रहने लगी। टयूशन किये। स्कूल में नौकरी करते हुए बेटों को पढ़ाया। अभावों में जीवन जिया। निम्न जाति के युवक से विवाह करने से शक्तिबाला संघर्षों से जूझती रही। उसे न ससुराल से सहारा मिला न मायके से। चंन्द्रिका ठाकुर 'देशदीप' की 'रस' '" का बसीठ पांडे रामबली यादव की अच्छी 14 फसल को अपनी फसल तथा अपनी कमजोर फसल को रामबली की फसल बताकर उसे ढगता है। रामबली यादव बसीठ पांडे के अनुरोध पर उसकी खेती के आधे भाग में अधवटाई पर फसल उगाता रहा है। धोखा देने से क्रोधित रामबली यादव का बेटा रामपाल पांडे को पीट देता है। दोनों पक्ष बारी-बारी से गांव के प्रधान के पास जाते हैं। प्रधान अवसर का राजनीतिक लाभ उठाता है। वह कपट-चाल से ब्राह्मणों और यादवों में झगड़ा करवा देता है। रामबली के सद्व्यवहार से पांडे को अपनी भूल का अहसास होता है। वह रामबली को उसका हिस्सा दे देता है। कहानी में दर्शाया गया है कि गांव के प्रधान, मुखिया, पंच आदि भी जातिवाद का विष फैलाकर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। सुरेन्द्र मन्थन की 'रन आउट'" के ब्राह्मण परिवार में जन्मे युवक नौकरी पाने से वंचित रह जाते हैं। बेरोजगारी के कारण विकास के स्वभाव में उग्रता, खीझ, कटुता, असहिष्णुता आदि आ जाती हैं। बेरोजगारी के कारण वह सुषमा से विवाह नहीं कर पाता। उसके पिता की सेवानिवृत्ति में केवल चार वर्ष रह गये हैं। वेटे की बेरोजगारी से वे भी दुखी हैं। कहानी में जाति आधारित आरक्षण से समाज में बढ़ते तनाव को दर्शाया गया है। आरक्षण की नीति से अनेक प्रतिभाशाली युवक नौकरी पाने से वंचित रह जाते हैं।

संतोष कुमारी की 'देवी का खल" की देवी अपनी एक अध्यापिका को पत्र लिखकर अपने संघर्षमय जीवन की कथा बताती है। पिछड़ी जाति में जन्मी उसने किसी प्रकार बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की। गरीब मजदूर पिता का तपेदिक से देहांत हो गया। मां मजदूरी करती रही। दलित जाति की होने के कारण उसे उपेक्षा, अपमान और तिरस्कार सहने पडे। उसकी गरीबी का एक कारण उसका दलित होना भी रहा। मुरलीधर वैष्णव की 'अपात्र'" का ब्राह्मण कुल जन्मा डॉ. व्यास जब शूद्र जाति के तहसीलदार श्यामलाल को साथ बैठाकर भोजन करता है तब व्यास के पिता रुष्ट होकर बेटे के घर से चले जाते हैं। वे बेटे को जनेऊ के लिए अपात्र घोषित कर देते हैं। इन्हीं बीमार पिता के बीमार पड़ने पर शूद्र श्यामलाल अपनी रक्तदान करता है। तथ्य जानने पर ब्राह्मण पिता के विचारों में परिवर्तन होता है। वे श्यामलाल और उसकी पत्नी को पुत्र तथा पुत्रवधू जैसा मानने लगते हैं। कहानी दर्शाती है कि जाति-भेद-भावना समाज में द्वेष, कटुता, असहिष्णुता, वैमनस्य आदि फैलाती है। भिन्न जातियों का रक्त भिन्न नहीं होता। सब व्यक्तियों की नसों में एक ही खून प्रवाहित रहता है।

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आज का कहानीकार परिवेश को उसकी सघनता में उभार रहा है। सामाजिक जीवन में आ रहे परिवर्तनों को व्यक्ति- जीवन की स्थितियों में गहरा रहा है। आदर्श - यथार्थ के द्वंद्व को वास्तव की कसौटी पर परख रहा है। वह सिद्धांतों से प्रेरित होकर भी जीवन को व्यावहारिकता में अर्था रहा है। दैनिक जीवन की घटनाओं में वह विश्व व्यापी परिवर्तनों को दर्शाता अनुभव- सत्य को उकेर रहा है। छोटी-बडी घटनाएँ शाश्वत को भिन्न भंगिमाओं में प्रस्तुत करती जीवन को आज की चेतना में अर्थाती है। जाति-भेद-भावना जैसी विघटनकारी सोच अपनी यथावहता को सिद्ध करती शिथिल हो रही हैं। महानगरों, नगरों में बहुत सीमा तक इसमें उदारता आयी है। गांवों में यह सभी जड़ता में बनी हुई है। संस्कारों में परिवर्तन सहजता से नहीं आते। व्यापक सम्पर्क विश्व प्रगति की चेतना, ज्ञान-विस्तार, बौद्धिक जागृति, परिवेश-बोध आदि जड़ मान्यताओं को शिथिल करते हैं। इनके आलोक में साम्प्रतिक कहानियां जाति- भेद-भावना के विघटनकारी और विनाशक रूप को दर्शाती मानवतावाद को गहरा रही हैं।

डॉ. ब्रह्म स्वरूप शर्मा

संदर्भ;

1. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून 2006

2. आजकल, नवम्बर 2006

3. मधुमती, मई 2007,

4. मधुमती, जून 2007

5. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून 2007

6. इन्द्रप्रस्थ भारती, अप्रैल-जून 2007

7. वही,

8. मधुमती, अगस्त 2007

9. मधुमती, अक्टूबर 2007

10. आजकल, दिसम्बर 2007

11. समकालीन भारतीय साहित्य, जनवरी-फरवरी 2008

12. आजकल, जून 2008

13. हरिगंधा, जुलाई 2008

14. समकालीन भारतीय साहित्य, सितम्बर-अक्टूबर 2008

15. मधुमती, नवम्बर 2008

16. हरिगंधा, नवम्बर 2008

17. मधुमती, दिसम्बर 2008

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