आज हिंदी दिवस पर विशेष राजेन्द्र वर्मा जी का व्यंग्य आलेख : हाय हिन्दी

Dr. Mulla Adam Ali
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Satire on Hindi Day by Rajendra Verma

Satire on Hindi Day by Rajendra Verma

आज हिंदी दिवस पर विशेष राजेन्द्र वर्मा जी का व्यंग्य आलेख : 14 सितंबर हिंदी दिवस पर राजेन्द्र वर्मा जी का व्यंग्य "हाय हिंदी", हिंदी दिवस व्यंग "हाय हिन्दी" पढ़े और शेयर करें। Rajendra Verma Hindi Satire on Hindi Diwas, Hindi Diwas Par Vyanga "Hai Hindi"..

हिन्दी दिवस पर व्यंग्य

हाय हिन्दी!

- राजेन्द्र वर्मा

संविधान साक्षी है कि हिन्दी हमारी राजभाषा है। सरकारी स्कूलों के पढ़े कुछ सिरफिरे इसे राष्ट्रभाषा कहते हैं। वे कहते हैं कि हिन्दी के बिना राष्ट्र गूंगा है।.... यह बिल्कुल ग़लत बात है। राष्ट्र गूंगा होता, तो भला विश्व में हमारा कोई स्थान न होता? हमने सिद्ध कर दिखाया है कि भाषा के बिना भी राष्ट्र संवाद कर सकता है। अभी राष्ट्रभाषा की तलाश हो रही है। जब तक यह पूरी नहीं होती, अंग्रेजी से काम चलाया जा रहा है। हम तो यह कहेंगे कि अच्छा ख़ासा चल रहा है! पता नहीं, ‘भारत के लोग’ अंग्रेज़ी भाषा में बुराई क्यों ढूँढ़ते रहते हैं? आख़िर उसमें बुराई ही क्या है? जबकि उसने सारी दुनिया में अपनी जगह बनायी है। अगर उसमें दम न होता, तो भला वह ऐसा कर पाती? हम जानते हैं कि अंग्रेजी की जगह लेने लायक़ किसी भी भारतीय भाषा में दम नहीं! वह चाहे हिन्दी ही क्यों न हो! दम होती, तो अब तक हिंदी या कोई-न-कोई भारतीय भाषा राष्ट्रभाषा बन न जाती! 

 अंग्रेज़ी का महत्व समझकर ही ‘राजभाषा अधिनियम’ ने अंग्रेजी को आरक्षण दिया है- जब तक एक भी प्रदेश हिन्दी के विरोध में रहेगा, हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं बनेगी। तमिलनाडु में तो राजभाषा अधिनियम ही नहीं लागू है। हिन्दी के समर्थक फिर भी उधम मचाते रहते हैं। वे यह क्यों नहीं समझते कि हिन्दी गँवारों की भाषा है; फि़ल्मी मनोरंजन की भाषा है; चाय-बिस्कुट बेचने और खाने वालों की भाषा है; अथवा रिक्शा-टैक्सी वालों की भाषा है। इन समर्थकों से कोई यह पूछे कि क्या हिंदी पढ़े-लिखों की भाषा है? क्या वह साइंस और टेक्नोलाजी की भाषा है? क्या वह संसद-न्यायालय की भाषा है? उसकी भाषा तो अंग्रेज़ी ही है। सरकार के काम-काज को अगर हिन्दी सँभालने लगी, तो फिर चल चुका काम!

 इसलिए सरकार ने निर्मल चित्त से खूब सोच-समझकर और विद्वानों से परामर्श कर यथार्थ का सही आकलन करने के पश्चात् ही हिन्दी को यथोचित स्थान देने के लिए साल में एक दिन निर्धारित किया है- 14 सितम्बर! वर्ष 1949 में इसी दिन राजभाषा अधिनियम पारित हुआ। आप समझ सकते हैं कि राष्ट्रभाषा का प्रश्न कितना महत्वपूर्ण है और उसे देश के शिल्पियों ने पूरी शक्ति से हल करने का प्रयास किया। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य यही है कि उन्होंने इस वाक्य को सिर-माथे लगाया- ‘हिन्दी हमारी मातृभाषा है, मात्र भाषा नहीं!’ किसी ने इसका विरोध किया हो, तो बताइए! 14 सितम्बर को स्मरणीय ही नहीं अविस्मरणीय बनाने के लिए ‘हिन्दी दिवस’ मनाये जाने का निश्चय किया गया।...हम भारत के लोगों से प्रश्न करना चाहते हैं कि अगर किसी कारण से साल-भर का राशन न उपलब्ध हो, तो एक दिन का भी छोड़ देना चाहिए? लेकिन अफ़सोस, अभी तक इसका उत्तर किसी ने नहीं दिया! 

 ये भारत के लोग कुछ ठोस करते तो हैं नहीं, सरकार के ख़िलाफ़ बस, बातें बनाते रहते हैं. हम लोग देखते हैं कि हिन्दी समर्थक हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी मास आदि उत्साह से मनाते हैं। इस पर सरकार ने कभी कोई आपत्ति की? यदि वह हिन्दी विरोधी होती, तो ऐसा करने देती भला? इन उत्साहियों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाई न शुरू कर देती? सरकार की सहमति से ही वे इसलिए सितम्बर भर वे ‘हिन्दी दिवस’ चलाते हैं। पूरा महीना नाटक करते हैं। कोई काम नहीं करते। अनेक प्रकार की प्रतियोगिताएं रखते हैं ताकि हिन्दी के दस-बीस लोगों को पुरस्कार वग़ैरह दिया जा सके और उनके भीतर हिन्दी के लिए जो कुलांचे भरती भावना है, उसका सम्मान हो सके। जिस दिन पुरस्कार वितरण होता है, उस दिन हिन्दी के कितने ही साहित्यकारों को शालें ओढ़ाकर उनके हाथ में यथासंभव सरस्वती की मूर्ति थमायी जाती है ताकि वे साल भर उसकी पूजा-अर्चना करते रहे और लक्ष्मी से दूर रहते हुए समाज और राजनीति को दिशा देते रहें। जहाँ देखिए, पुरस्कार वितरण एवं सम्मान समारोह सफलतापूर्वक मनाये जाते हैं। सारे स्टाफ को कलाकन्द, पेटीज, बिस्कुट और चिप्स खिलाकर पेप्सीकोला पिलाया जाता है ताकि कोई असंतुष्ट न रहे, वह चाहे हिंदी वाला हो अथवा अंग्रेजी वाला ! हम तो दोनों की जै-जै में विश्वास रखते हैं भैय्ये!

 चौदह सितम्बर अधिकतर पितृपक्ष में आता है। ग़लती से अगर पहले आ जाए, तो पुरस्कार- वितरण और सम्मान समारोह तक पितृपक्ष लग ही जाता है । पितृपक्ष का भारतीयों के लिए बहुत महत्व है। इसमें वे अपने पुरखों का श्राद्ध करते हैं। उनकी मृतात्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ और दान-दक्षिणा करते हैं । पुरखा वही नहीं होता, जो लम्बी-चौड़ी उम्र लेकर असार संसार त्यागकर स्वर्गीय हो जाए, बल्कि वह भी होता है जो जन्म लेते ही स्वर्ग या नरक को प्राप्त कर ले, जैसे राष्ट्रभाषा हिंदी । अतः दोनों ही श्राद्ध के अधिकारी हैं । मृतात्मा को यदि पितृपक्ष में याद किया जाए, तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? इससे याद किये जाने वाली की आत्मा को साल भर की तृप्ति मिल जाती है और अंधेरी रातों में भटकने से बच जाती है । याद करने वाले को भी पुण्य-प्रताप मिलता है ।

 भारत में सौ से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, पर 22 तो संविधान की आठवीं सूची में दर्ज हैं। हिन्दी उनमें से एक है। साधारण सी गणित जानने वाला यह आसानी से समझ सकता है कि ‘एक बटे अट्ठाइस’ को ‘एक बटे एक’ नहीं समझा जा सकता। जब कोई भाषा पूरे देश में बोली ही नहीं जाती, तो वह देश की भाषा कैसे हो सकती है। राष्ट्रभाषा तो हो ही नहीं सकती। फिर भी लोग हैं कि हैरान-परेशान हैं और ‘हाय हिन्दी, हाय हिन्दी’ लगाये हुए हैं। कुछ प्रदेश ऐसे हैं जिन्होंने अपने प्रदेश में हिन्दी लागू कर रखी है। यह अच्छी बात है कि जिस भाषा को प्रदेशवासी समझते हों, उसी में कानून बनाया जाना चाहिए। लोगों से पत्राचार किया जाना चाहिए, जैसे- उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड। पर यह क्या बात हुई कि जिस प्रदेश में जो भाषा बोली ही न जाती हो, वह उसके काम-काज की भाषा हो! यह तो वही वाली बात हुई कि बंगाल में बोली तो बंगाली जाती है, लेकिन उसकी भाषा हो हिन्दी! इसी प्रकार कश्मीर, पंजाब, असम, आन्ध्र, तमिलनाडु के राजकाज की भाषा हिन्दी कैसे हो सकती है?

इसलिए जब सीखना ही है, तो अंग्रेजी क्यों न सीखें? इससे प्रदेश में भी काम चल जायेगा और देश-विदेश में भी! भारत-भ्रमण में तो काम आयेगी ही। हिन्दी भाषी प्रदेशों में केवल हिन्दी से कैसे काम चलेगा? जब केन्द्र से बात करनी होगी या लिखा-पढ़ी करनी होगी, तो अंग्रेजी का सहारा लेना ही पड़ेगा। यह राजभाषा अधिनियम भी कहता है। इसलिए वहां भी अंगे्रेजी तो सीखनी ही पड़ेगी। इसीलिए भारतवासी चाहे जिस प्रदेश के रहने वाले हों, बिना अंग्रेजी के कैसे रह सकते हैं? कक्षा छह से ए.बी.सी.डी. पढ़ने वाले अपनी तो जैसे-तैसे काट लेंगे, लेकिन अपने बच्चों को बिना शुरू से अंग्रेजी पढ़ाये नौकरी कैसे दिलायेंगे? सो, अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम से पढ़ाना ही पड़ेगा।

 संसद, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की भाशा तो अंग्रजी ही है। अंग्रेजी से वैर रखकर आप देश की व्यवस्था कैसे चलायेंगे? यह तो पहले ही दिन से संभव था, लेकिन तब नेहरूजी की ठसक अंग्रेजी में बसती थी और उन्होंने संसद में पहला भाषण अंग्रेजी में दिया था। नींव ही जब अंग्रेजी में पड़ी है, तो घर हिन्दी में कैसे बनेगा? उच्चतम न्यायालय अंग्रेजी में सुनता है, बोलता है और लिखता है। उच्च न्यायालयों का भी यही हाल है। एकाध न्यायमूर्ति हिन्दी में अन्तरिम आदेश लिखा देते हैं, निर्णय लेकिन अंग्रेजी ही में लिखाते हैं। उसमें आने वाले उद्धरणों को आप हिन्दी में कैसे लिखेंगे और कैसे विवेचित करेंगे? फिर लैटिन के वाक्यांश जो न्यायायिक उद्घोषणाओं की रीढ़ हैं, उनका अनुवाद हिन्दी में कैसे हो? अंग्रेजी का भविष्य इसलिए सुरक्षित है। हिन्दी वाले ‘हाय-हाय’ करते हैं, तो करते रहें।

 हिन्दी वालों का तब दिल दुखने लगता है जब कोई हिन्दीभाषी निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में छपवाता है। यह उसकी विवशता है, क्योंकि उसके बच्चों को अपने दोस्तों में कार्ड बांटना होता है। यदि वह हिन्दी में होता, तो सोचिए, उन्हें कितनी शर्म आती! हिन्दी वाले के बच्चे तो अंग्रेजी मीडियम वाले ही हैं! जब हम अपने ही परिवार में हिन्दी नहीं लागू कर पा रहे हैं, तो देश की क्या बात करें? हिन्दी वाला मामले की तह तक नहीं जाता। वह केवल अंग्रेज़ी की बुराई करता है या अहिन्दी वाले पर आरोप लगाता है कि वह हिन्दी को आगे नहीं बढ़ाना चाहता! हिन्दी की माला जपने वाला यह तो चाहता है कि अहिन्दी भाषी हिन्दी सीखे, परन्तु वह स्वयं अपनी मातृभाषा हिन्दी के अतिरिक्त अन्य कोई भारतीय भाषा नहीं सीखना चाहता! वह चाहता है कि बाबू मोशाय हिन्दी सीखें, पर वह स्वयं बंगला नहीं सीखता। एक को हिन्दी नहीं आती, तो दूसरे को बंगला। अंग्रेजी लेकिन दोनों को आती है। फिर भी हिन्दी वाला कहेगा- हाय हिन्दी!

 दुनिया की बात करें, तो चीन की ‘मंदारिन’ सबसे अधिक बोली जाती है- लगभग पन्द्रह प्रतिशत। फिर स्पेनिश का नम्बर आता है। उसके बाद अंग्रेजी आती है। हिन्दी तो चौथे नम्बर पर है। विश्व में पांच प्रतिशत से भी कम बोली जाती है, लेकिन लोग हैं कि ‘हिन्दी-हिन्दी’ कर रहे हैं और उसे यू.एन.ओ. की भाषा घोषित करवा रहे हैं। एक बार अटलविहारी बाजपेयी ने यू.एन.ओ. में हिन्दी में भाषण क्या दे दिया, लोग हिन्दिया गये- लगे अंग्रेजी को गरियाने! अंग्रेजी बोलने वालों का विश्व-प्रतिशत भले ही साढ़े पांच हो, मगर वह इंटरनेट की भाषा है। दुनिया में सबसे अधिक पढ़ी-लिखी और बोली जाने वाली भाषा है। वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, पर उससे दुश्मनी निकालने के लिए हिन्दी को आगे किया जा रहा है। हिन्दी को बढ़ावा देने का यह कौन सा तरीक़ा है? इससे हिन्दी का कल्याण हो जाएगा? अखाड़े में एक ही पहलवान जीतता है । अपवादस्वरूप, दाँव भले ही बराबरी पर छूटे! हिन्दी और अंग्रेजी को अखाड़ने में उतार कर क्यों हिन्दी की फ़जीहत कराना चाहते हैं आप?

 हिन्दी की वकालत करने वाल से पूछिए कि आपने हिन्दी साहित्य की कौन सी कृति पिछले माह पढ़ी, तो वह बगलें झांकने लगेगा। उसे तो यह भी नहीं मालूम होगा कि आज हिन्दी में कौन अच्छा लिख रहा है और कौन-सी पठनीय या संगृहणीय पुस्तकें छपी हैं। दुनिया का तमाम साहित्य हिन्दी में अनूदित होकर बाजार में आ रहा है, लेकिन हिन्दी के पाठक गायब हैं। तीस करोड़ हिन्दी बोलने वालों प्रौढ़ों में क्या पन्द्रह करोड़ पाठक नहीं होने चाहिए? पन्द्रह तो छोडि़ए एक करोड़ भी नहीं हैं। हिन्दी के नामी-गिरामी लेखक-कवि की पुस्तक की प्रतियां आज पांच सौ से हजार तक ही छपती हैं। धार्मिक साहित्य, विषेशतः तुलसीदास की ‘रामचरित मानस’, के अतिरिक्त देवकीनन्दन खत्री, प्रेमचन्द, रेणु जैसे लेखकों की पुस्तक भले थोड़ी-बहुत पढ़ी जाती हों, अन्यथा आज हिन्दी का कोई ऐसा लेखक-कवि नहीं है जो अपने सृजन के बल पर रोटी खा सके। अमृतलाल नागर के बाद कोई ऐसा साहित्यकार नहीं दिखता, जो लेखन के दम पर अपना परिवार पाल सके।

 यह ठीक है कि अंग्रेजी ‘प्रभुओं’ की भाषा है और हिन्दी प्रजाजन की। एक ओर तो हिन्दी में लेखा, वाणिज्य, विज्ञान, विधि, तकनीक सम्बन्धी सरल-सुबोध साहित्य नहीं मिलता, दूसरी ओर उसे अप्रचलित शब्दों और पदों से इतना दुरूह बना दिया गया है कि विद्यार्थी या प्रयोक्ता को लगता है कि इससे अंग्रेजी ही भली! जब भाषा अपरिचितों की तरह व्यवहार करेगी, तो कोई कैसे इसके सहारे अपने विषय में दक्ष हो सकता है? 

 हिन्दी के पुजारियों ने बोलचाल की भाषा से ऐसी शत्रुता ठान रखी है कि जैसे आई.ए.एस.बना बेटा अनपढ़ बाप को नौकर बता देता है। उससे दूरी बनाकर अपने मिलने-जुलने वालों में रहता है- कहीं उसकी भद न पिट जाए? संस्कृत के दुष्मनों ने संस्कृत को गड्ढे में गिरा कर ही दम लिया। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ इसलिए अवधी में लिखा। क्या वे उसे संस्कृत में नहीं लिख सकते थे? बल्कि प्रत्येक काण्ड के प्रारम्भ में दो-चार श्लोक लिखकर पंडितों को दिखा भी दिया। तभी ‘रामचरितमानस’ आज सर्वाधिक पढ़ी जाती है। पंडितों ने उस पर भी रोक लगा दी। उसे पूजा की वस्तु बना दी। पर यह अलग अलग सवाल है। आज के भाषाई पंडितों को लगता है कि यदि बोल-चाल की भाषा से शब्द उठा लेंगे, तो फिर उन्हें पूछेगा कौन? शब्द की उत्पत्ति के उनके लेक्चर कौन सुनेगा? ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ी ने उन्हें रिश्वत खिला रखी है कि अपनी बेवकूफ़ी से हिन्दी का कल्याण न होने दें!

 ‘भारत माता के ललाट पर/सजी हुई रोली है हिन्दी’ की अवधारणा वाले हिन्दी-समाचारपत्रों की एक ही इच्छा रहती है कि वे दो ही लोगों के काम आयें- एक, विज्ञापनदाताओं के और दूसरे पुडि़या बांधने वालों के। विज्ञापनों से जो जगह बचती है, उसमें वे राजनीति, हिंसा, व्यापार, खेल और फि़ल्म जगत की चटपटी खबरें छापते हैं । एक पृष्ठ ही छोड़ते हैं सम्पादकीय के लिए, जिसमें वे आधे पर तथाकथित राजनैतिक विमर्श छापते हैं । फिर एक-चैथाई पृष्ठ में समाज, अर्थशास्त्र और अध्यात्म को भी समेटते हैं । एक-चौथाई तो ‘पाठकों के विचार’ का बनता ही है । साहित्य गया भाड़ में ! स्पेस की कितनी कमी है। कोई अच्छा समाचार न देने के कारण वे शर्माते-शर्माते पाँच रुपये वसूलते हैं, अन्यथा सोलह पृष्ठों के दस रुपये तो बनते ही हैं! वे कोई अंग्रेज़ी के अख़बार थोड़े़ ही हैं जो चार रुपये में बीस पेज छापें जिसमें आठ-दस पेज की पठनीय सामग्री भी दें!

 फिल्मों और टी.वी. ने हिन्दी को ऐसा बना दिया है कि वह न हिन्दी रही, न अंग्रेजी! सयानों ने नयी भाषा ही ईज़ाद कर ली- हिंग्लिश! आज के किसी नौजवान से बात कीजिए । लानत है उसकी नौजवानी पर कि वह एक वाक्य हिन्दी में बोले । हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों को ठूंस-ठूंस कर बोलेगा। कोई ऐसा न समझ लें कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन जब अंग्रेजी में कुछ बोलने को कहा जाए, तो वह बिना हिन्दी के बिना बोल नहीं सकता। इसे कहते हैं संतुलित विकास! नर न हो पाइए, तो मादा हो जाइए । वह भी न हो पाइए, तो फिर हाँ, ‘वही’ हो जाइए ! वह भी तो इन्सान है! उसके भी सीने में दिल धड़कता है!

 अंग्रेज़ जब यहां से जाने लगे तो मैकाले से पूछा कि अब इस देश को कौन चलायेगा? मैकाले बोला- काले अंग्रेज़! वह जानता था कि काले अंग्रेज़ गोरे अंग्रेज़ों से चार क़दम आगे हैं। वे अपने भाइयों को नीचा दिखाने में माहिर हैं। अगर हर घर में नहीं, तो शहर में दस-पांच विभीषण मिल ही जायेंगे! रावण जब मरेगा, तब मरेगा, पहले लंका तो ढहा दें! हर राम का एक रावण होता है और हर रावण की एक लंका होती है। हर लंका में एक विभीषण होता है। खोजने की देर है। अंग्रेजों ने विभीषण खोज निकाले! जब मतलब भर के नहीं मिले, तो ‘सर’ की उपाधि बांटनी शुरू की। फिर तो, मतलब भर से दस गुने हो गये। हर शहर में ‘सर’ वाले दस पत्थर लगे मिलेंगे। चार में से एक सड़क का नाम फलां ‘सर’ से रखा मिलेगा! उनके रहते शहर में अगर अंग्रेज़ी मीडियम के चार ठो स्कूल न खुलते, तो वे अपने अंग्रेज़ ‘माइ-बाप’ को क्या मुंह दिखाते? 

 मैकाले पद्धति की अंग्रेजी मीडियम की शिक्षा ने गली-गली बाबुओं की फौज़ खड़ी कर दी। एक बाबू मरा, चार पैदा हुए । बाबू ज्यादा पढ़-लिख गया तो अफ़सर बन गया! अफ़सर की औलाद अफ़सर! काले अंग्रेज छा गये। महीन चावल खाने का यही लाभ है! ईमान गिरवी रखना कमज़ोर दिल वालों का काम है। ईमान बेच कर जो पद-प्रतिष्ठा, धन-धान्य कमाये, वही सपूत है। अंग्रेज़ी नहीं तो ‘करियर’ नहीं। अंग्रेज़ी नहीं, तो पैसा नहीं। अंग्रेज़ी नहीं तो रोटी नहीं । इज़्ज़त की तो बात ही मत कीजिए! सरकारी स्कूल की पढ़ी हिन्दी क्या करे? वह अंग्रेजी की गुलामी न करे, तो क्या करे? पेट कैसे भरे। शहर में कौन-सी खेती धरी है? नियमित आमदनी चाहिए तो हिन्दी के सेवक जी! मजदूरी करो। रिक्शा चलाओ, सब्जी का ठेला लगाओ, फल बेचो, पंचर बनाओ, झाड़ू लगाओ, कूड़ा बीनो । हिन्दी तो ग़रीब की वह जोरू है जो अंग्रेज़ी के घर में झाड़ू-पोंछा कर पेट पालती है। बच्चों को पालने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। कुछ से कुछ भी! उपर से टी.वी. और अखबार वाले देश की अस्मिता और स्त्री-अस्मिता की बातें करते हैं। हुंह!

 काला अंग्रेज जब बूढ़ा होता है तो उसे आत्मग्लानि होती है। जीवन भर अंग्रेजी की भक्ति करने वाला सपने में जब बार-बार भैंसाकुंड (लखनऊ का मरघट) देखता है, तो वह हरिओम शरण, भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व के भजन सुनना शुरू करता है। गीता के श्लोकों में परलोक सुधारने की शक्ति दिखने लगती है। रामायण, भागवत और गीता के प्रसंगों पर चर्चा से मन का शांति मिलती है। मन बहलाने के लिए प्रेमचन्द को भी पढ़ता है। ‘चन्द्रकान्ता संतति’ का हिन्दी वर्जन पढ़ता है। शेक्सपियर के नाटकों के अलावा वह एन.एफ़.डी.सी. द्वारा निर्मित अथवा ऋषिकेश मुखर्जी और वासु चटर्जी द्वारा निर्देशित हिन्दी फिल्मों की चर्चा-प्रशंसा करने लगता है । 

   काला अंग्रेज बुढ़ा कर हिन्दीमय होने लगता है, पर उसकी हिन्दीमयता देश के काम नहीं आती। और तो और, वह उसके बच्चों तक भी नहीं पहुंचती! प्रेरणा-प्रभाव की कौन कहे? उसकी आत्मा की शांति में हिन्दी और संस्कृत अवश्य काम आती हैं, लेकिन इस बात को आत्मसात करने के लिए उसे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। कोई बात नहीं, वह प्रतीक्षा करेगा।

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