सूरदास कविकर्म के विधान पक्ष

Dr. Mulla Adam Ali
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Surdas Jayanti Special

Legislative aspects of Surdas poetry

सूरदास कविकर्म के विधान पक्ष

हिंदुओं के स्वतंत्रय के साथ-ही साथ वीरगाथाओं की परंपरा भी काल के अंधेरे में जा छिपी। उस हीन दशा के बीच में महाकवि सूरदास ने अपने पराक्रम के गीत किस मुंह से गाते और किन कानों से सुनते? जनता पर गहरी उदासी छा गई थी। राम और रहीम को एक बतानेवाली बानी मूरझाए मन को हरा न सकी, क्योंकि उसके भीतर उस कट्टर एकेश्वरवाद का सुर मिला हुआ था, जिसका ध्वंसकारी स्वरूप लोग नित्य अपनी आंखों देख रहे थे।

कविकर्म विधान के दो पक्ष होते हैं-विभाव पक्ष और भाव पक्ष। कवि और तो ऐसी वस्तुओं का चित्रण है जो मन में कोई भाव उडाने या उठे हुए भाव को और जगाने में समर्थ होती है और दूसरी ओर उन वस्तुओं के अनुरूप भावों के अनेक स्वरूप शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। कहने की अवश्यकता नहीं कि काव्य में ये दोनों अव्यक्त रूप में वर्तमान रहता है। भावपक्ष में सूर की पहुंच का उल्लेख ऊपर हो चुका है। सूरदास जी ने श्रृंगार और वात्सल्य ये ही दो रस लिए हैं। अतः विधानपक्ष में भी उनका वर्णन उन्हीं वस्तुओं तक परिमित है, जो उक्त दोनों रसों के आलंबन या उद्दीपन के रूप में आ सकती है, जैसी राधा और कृष्ण के नाना रूप, वेष और चेष्टाएँ तथा करीलकुंज, उपवन, यमुना, पवन, चंद्ररूतु इत्यादि।

विधानपक्ष के अंतर्गत भी वस्तुएँ दो रूपों में लाई जाती हैं- वस्तु रूप में और अलंकार रूप में अर्थात प्रस्तुत रूप में और अप्रस्तुत रूप में। मान लीजिए कि कोई कवि कृष्ण का वर्णन कर रहा है। पहले वह कृष्ण के श्याम या नीलवर्ण शरीर को, उस पर पडे पीतांबर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोरमुकुट आदि को सामने रखता है। यह विन्यास वस्तु रूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुनातट, निकुंज की लहराती, लताओं, चंद्रिका, कोकिलकूजन आदि का होगा। इसके साथ ही यदि कृष्ण के शोभवर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है तो वह विन्यास अलंकार रूप में होगा। वर्ण्य विषय की परिमिति के कारण वस्तुविन्यास का जो संकोच 'सूर' की रचना में दिखाई पडता है। उसकी बहुत कुछ असर अलंकार के रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या बहुत अधिक है। दूसरे प्रकार की रूप योजना या व्यापार योजना किसी और रूप के प्रभाव को बढाने के लिए अधिकतर ऐसे ही पदार्थ लाये है।

सारांश यह है कि हम ब्रह्म दृष्टि से लिए गए रूपों और व्यापारों के संबंध में सूर की पहुंच का विचार करते हैं तो यह बात स्पष्ट देखने में आती है कि प्रस्तुत रूप में लिए हुए पदार्थों और व्यापारों की संख्या परिमित है। इसके दो कारण है-पहली बात तो यह कि इनकी रचना 'गीतिकाव्य' है, जिसमें मधुर ध्वनिप्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यापारों की झलक भर काफी होती है। सूरदासजी ने प्रत्येक लीला या प्रसंग पर फुटकर पद कहे हैं, एक पद दूसरे पद से संबंद्ध नहीं है। प्रत्येक पद स्वतंत्र है। इसीसे किसी एक प्रसंग पर कहे हुए पदों को यदि हम लेते हैं तो एक ही घटना से संबंध रखनेवाली एक ही बात भिन्न-भिन्न रागिनियों में कुछ फेरफार के साथ बहुत से पदों में मिलती है जिससे पढनेवाले का जी कभी कभी ऊब सा जाता है। यह बात प्रकृत प्रबंध में नहीं होती।

परिमिति का दूसरा कारण सूरदास जी ने जीवन की वास्तव में दो ही वृत्तियों ली है-बालवृत्ति और यौवनवृत्ति। इन दोनों के अंतर्गत आए हुए व्यापार क्रीडा, उमंग और उद्रेक के रूप में ही है। प्रेम भी घटनापूर्ण नहीं है। उसमें किसी प्रकार का प्रयत्न विस्तार नहीं है, जिसके भीतर नई-नई वस्तुओं और व्यापारों का सन्निवेश होता चलता है। लोकसंघर्ष से उत्पन्न विविध व्यापारों की योजना सूर का उद्देश्य नहीं है, उनकी रचना जीवन की अनेक रूपता की ओर नहीं गई है, बालक्रीड़ा, प्रेम के रंग रहस्य और उसकी अतृप्त वासना तक ही रह गई है।

सूर का वियोगवर्णन के लिए ही है। परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रिडा करते-करते किसी कुंज या झाडी में जा छिपते हैं या यों कहिए कि थोडी देर के लिए अंतर्धान हो जाते हैं। बस, गोपियाँ मुर्छित होकर गिर पडती है, उनकी आंखों से आंसुओं की धारा उमड चलती है। पूर्ण वियोगधारा उन्हें आ घेरती है। यदि परिस्थिति का विचार करे तो ऐसा विरह वर्णन असंगत प्रतीत होगा। पर जैसा कहा जा चुका है। सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है जिसमें वर्णन की उपर्युक्तता या अनुपयुक्तता के निर्णय में घटना या परिस्थिति के विचार का बहुत कुछ योग रहता है।

संदर्भ ग्रंथ :

1. सूरसागर और अन्य भ्रमरगीत डा. श्रीनिवास शर्मा

2. सूरसागर सटीक - डा. देवेंद्र आर्य

3. सूरसागर - सूरदास

4. हिंदी साहित्य : युग और प्रनुतियाँ - डा. शिवकुमार शर्मा

5. हिंदी साहित्य का इतिहास - शुक्ल

6. हिंदी साहित्य का इतिहास - डा. श्रीनिवास शर्मा

7. त्रिवेणी - अशोक प्रकाशन श्रृंखला

- डॉ. आदिनारायण बादावत

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