हिन्दी बाल नाटकों में मंचीय तत्व - डॉ. हेमन्त कुमार

Dr. Mulla Adam Ali
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This article explores the essential stage elements in Hindi children’s plays, highlighting the role of music, dialogue, language, costumes, and stage limitations. Dr. Hemant Kumar explains how these elements make a children’s play truly stage-worthy. Stage Elements in Hindi Children’s Plays: Key Aspects for Effective Performance.

Stage Elements in Hindi Children’s Plays

हिंदी बाल नाटकों में मंचीय तत्व

हिंदी बाल नाटकों में मंचीय तत्व: लेखन और रंगमंच की आवश्यकताएँ

यह आलेख “हिन्दी बाल नाटकों में मंचीय तत्व” डॉ. हेमन्त कुमार द्वारा लिखा गया है, जिसमें बाल नाटकों की रचना और उनके सफल मंचन के लिए आवश्यक बिंदुओं की चर्चा की गई है। बाल नाटक केवल किताबों तक सीमित न रह जाएँ, इसके लिए लेखक ने गीत-संगीत, सरल भाषा, छोटे संवाद, सीमित दृश्य, प्रतीकात्मक कास्ट्यूम और मंच की वास्तविक सीमाओं जैसे महत्वपूर्ण मंचीय तत्वों को विस्तार से समझाया है। यह प्रस्तावना बाल नाटक लेखन, रंगमंच और बाल साहित्य से जुड़े शोधकर्ताओं, शिक्षकों और अभिरुचि रखने वालों के लिए उपयोगी है।

हिन्दी बाल नाटकों में मंचीय तत्व

    बाल नाटक लेखन और मंचीय तत्व या नाटकों की मंचीयता –ये दोनों विषय अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, या यह भी कह सकते हैं कि दोनों ही एक दूसरे के पूरक भी हैं। पूरक इस सन्दर्भ में कि बाल नाटक लेखन बिना उसमें मंचीय तत्वों को ध्यान में रखे हुए नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब तक लिखे गए बाल नाटक में मंचीय तत्वों की मौजूदगी नहीं होगी उनका मंचन मुश्किल होगा और बिना मंच पर पहुंचे सिर्फ नाटक की स्क्रिप्ट तैयार कर देने का कोई मतलब भी नहीं है। बिना मानचित हुए वह नाटक सिर्फ पत्रिकाओं और किताबों तक सिमित होकर रह जाएगा और बाल दर्शकों तक नहीं पहुँच सकेगा।

   यदि बाल नाटकों के वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो पहली बात तो यह कि हिंदी बाल साहित्य में अन्य विधाओं की तुलना में बाल नाटक बहुत कम लिखे जा रहे हैं। जो लिखे जा रहे या प्रकाशित हो रहे हैं उनमें बहुत कम संख्या ऐसे बाल नाटकों की है जो मंच तक पहुंचाते हैं या मंचित होते हैं।

    इन नाटकों के मंचित न हो पाने के कारण तो बहुत से हैं ।मसलन लेखक द्वारा अपने लिखे नाटकों के मंचन का प्रयास न करना, बाल नाटक लेखकों का रंगमंच से दूरी – या ऐसे और बहुत से कारण है, लेकिन इसके पीछे जो सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण है वो है लिखे जा रहे नाटकों में मंचीय तत्वों का अभाव। -कोई भी नाट्य निर्देशक जब किसी नए बाल नाटक की स्क्रिप्ट प्रोडक्शन के लिए उठाता है तो उसे पढ़ते हुए सबसे पहले वो स्क्रिप्ट की इसी दृष्टि से पड़ताल करता है कि यह स्क्रिप्ट मंचन के योग्य है अथवा नहीं? और अक्सर निर्देशक कई नाटकों को कथ्य में अच्छे होने के बावजूद सिर्फ इसलिए रिजेक्ट कर देता है कि उनमें मंचीय तत्त्व नहीं थे अथवा वह नाटक मंचन के योग्य नहीं था ।तो आइये सबसे पहले हम चर्चा करते हैं उन तत्वों की या एलीमेंट्स की जो किसी नाटक को मंचन के योग्य बनाते हैं।

1. गीति तत्व : नाटकों के मंचन को रोचक और आकर्षक बनाने वाला जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व या घटक है वह है गीत और संगीत का यही वह घटक है जो किसी भी नाटक के दर्शकों को अपनी सीट से बांधे रह सकता है। खासकर बाल नाटकों के सन्दर्भ में तो यह अहम भूमिका निभाता है। क्योंकि बच्चों, वयस्कों, बूढों सभी को संगीत गीत हमेशा से ही पसंद रहा है और रहेगा.. इसमें कोई दो राय नहीं।

    यदि आप कभी गाँवों में रहे हों तो अपने पिछले दिनों को याद करिए-- यदि आपको पता रहता था कि आपके गाँव में आज किसी शादी ब्याह में या मेले में नौटंकी होने वाली है तो आप नौटंकी देखने कैसे दीवानों की तरह पहुँच जाते थे। लेकिन नौटंकी या तमाशे के लिए ये दीवानापन ऐसे ही नहीं आता था—जैसे ही गाँव में रात के अँधेरे और सन्नाटे में नक्कारे की – कड़..कड़ कड़..कड़..धुम्म ध्वनि गूँजती थी लोग किस तरह भागते हुए नौटंकी देखने पहुँच जाते थे। रामलीला के मंचन के मौसम में या नवरात्र में जैसे ही लाउडस्पीकर्स पर .... “हे बानर तू कौन है ---क्या है तेरा नाम/ क्यूं आया दरबार में /क्या है मुझसे काम ......” संवाद वाद्यों के साथ गायक की सुमधुर ध्वनि में गूँजता था।गाँव के लोगों के पाँव स्वतः ही रामलीला मैदान या पंडाल की तरफ दौड़ पड़ते थे, और इन राम लीला प्रेमियों में बच्चे, बूढ़े, युवा, बुजुर्ग, महिलाएं हर वर्ग के लोग होते थे और तो और मेरे गाँव में तो एक बूढ़े बाबा थे जो चल नहीं सकते थे तो उन्हें उनके बेटे एक छोटे से खटोले पर बैठा कर खटोला पकड़ा कर लाते थे, तो ये असर होता है मंचन में संगीत का और गीत संगीत का यही जादू बाल नाटकों को निश्चित ही मंचन के योग्य बनाता है। इसलिए हम सभी बाल साहित्यकारों को कोई बाल नाटक लिखना शुरू करते समय बाल नाटक के इस महत्वपूर्ण और जरूरी घटक को ध्यान में रखना ही होगा ।इसके लिए हमें अपने नाट्य आलेख में संवादों को थोड़ा गेय यानि जिन्हें बच्चे गाकर बोल सकें ऐसा लिखना होगा ।यदि बाल नाटकों के संवाद सपाट गद्य में ही लिखे जाएंगे तो संभवतः वो बाल दर्शकों को आकर्षित नहीं करेंगे ।

    यह बिलकुल जरूरी नहीं कि नाटक के सारे ही संवाद लिरिकल या गेय हों। नाटक के शुरुआत में नट-नटीके संवाद,बीच में कुछ पात्रों के संवाद अगर लिरिकल रहेंगे तो नाटक के निर्देशक उन्हें संगीत के साथ बाल कलाकारों द्वारा मंच पर प्रस्तुत करवाएंगे और निशचित रूप से वो बच्चों के मानस पटल पर बेहतर प्रभाव छोड़ेंगे। नाटक बच्चो, बड़ों सभी दर्शकों को बांधे रहेगा।

 उदाहरण के लिए मैं अपने ही एक नाटक का एक संवाद यहां दे रहा। मेरा एक पंचतंत्र की कहानी पर आधारित बाल नाटक है – “बुद्धि बड़ी या शेर"। वैसे तो यह नाटक कठपुतली के लिए लिखा गया था लेकिन किसी स्कूल के बच्चों ने इसे मुखौटे लगाकर मंच पर प्रस्तुत किया था ।इस नाटक की शुरुआत ही मैंने नटी के गीतमय संवाद से किया था ।

नटी : एक घना जंगल था बच्चों

        राजा वहां का सोनू शेर

       मोटा तगड़ा और फुर्तीला

       राजा अपना सोनू शेर ।

(मंच पर नटी थिरकती है ।नट गाता है )

नट :ना कोई झगड़ा ना कोई झंझट

      ना ही किसी पे कोई संकट

       झगड़े संकट हल कर देता

      चुटकी बजा के सोनू शेर ।

 अब अगर मैं नाटक की शुरुआत में यही संवाद नट-नटी से गद्य के रूप में बुलवाता -- “एक घने जंगल का रजा सोनू शेर था ।वो मोटा तगड़ा फुर्तीला था --- ”तो बच्चों को निश्चित रूप से वो गद्यात्मक संवाद न ही ग्रिप में ले सकता था न ही उन्हें आकर्षित करता। इतना ही नहीं बच्चे ऐसे रूखे संवाद सुन कर ऊबने भी लगते। जबकि नाटक की संगीतमय शुरुआत देखते ही बच्चे एकदम से नाटक देखने में तल्लीन हो गए थे ।तो यह होता है नाटक में गीत और संगीत का जादू।

2. संवाद छोटे और चुटीले : मंचन की दृष्टि से बाल नाटकों का दूसरा महत्वपूर्ण घटक है –संवादों का छोटा होना ।संवादों का चुटीला होना।

    आपको भी याद होगा कि बड़ों के लिए लिखे गए बहुत से नाटकों के सम्वाद किसी समय एक -एक पेज के होते थे ।खासकर जयशंकर प्रसाद जी के नाटकों में संभवतः इसी लिए जयशंकर प्रसाद जी के नाटकों को मंच पर लाने की हर निर्देशक हिम्मत नहीं करते ।

   अब बाल नाटकों में यदि संवाद एक-एक पैराग्राफ के बड़े बड़े लिखे जाएंगे तो उन्हें बाल कलाकारों को याद करने में दिक्कत होगी। उनका ज्यादा ध्यान संवादों को याद करने पर केन्द्रित होगा न की अपने पात्र के अभिनय में कभी यह भी हो सकता है कि वो मंच पर पहुँचाने के बाद अपने लम्बे संवादों को या उनके कुछ अंश को भूल भी जायं या संवाद बोलते समय कहीं अटक जायं। ऐसे में नाटक का मंचन निश्चित रूप से बाधित भी होगा।

    इसीलिए मंचन के योग्य बाल नाटक लिखते समय बहुत जरूरी है की नाटकों के संवाद छोटे छोटे रखे जायं, ज्यादा से ज्यादा एक दो या बहुत हुआ तो तीन वाक्यों के जिन्हें बच्चे आसानी से याद भी रख सकें और मंच पर भावों के अनुरूप बोल भी सकें। साथ ही यदि संवाद थोड़ा चुटीले और हास्य प्रधान रहेंगे तो वो बच्चों को आनंदित भी करेंगे।

3. भाषा सरल और बोलचाल की : बाल नाटक मंच तक पहुँच सकें इसके लिए जरूरी है कि उस नाटक में बी आहूत सरल और बोल चाल की भाषा का इस्तेमाल किया जाय, न कि दुरूह या किताबी भाषा का। इसके पीछे सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह नाटक पढ़ा नहीं जा रहा है बल्कि दर्शकों द्वारा देखा जा रहा है। इसमें यदि कठिन शब्दों का प्रयोग होगा तो वो दर्शकों के सर के ऊपर से गुजर जाएगा ।या हो सकता है दर्शक का ध्यान नाटक से हट कर उस शब्द का अर्थ खोजने पर केन्द्रित हो जाय और वह आगे के नाटक का आनंद न उठा सके।

   आप इसे यूं भी समझ सकते हैं कि बच्चा यदि किताब में कोई नाटक पढ़ रहा है और उसे कोई शब्द या वाक्य समझ में नहीं आता है तो वो पन्ने पलट कर फिर से और बार बार उसे समझने की कोशिश कर सकता है। शब्दकोष में उस शब्द का अर्थ खोज सकता है। घर के किसी बड़े से या स्कूल के अपने शिक्षक से उस शब्द का या वाक्य का अर्थ पूछ कर उसे समझ सकता है।

   लेकिन वहीँ मंच पर स्थिति दूसरी होती है ।दर्शक किसी सम्वाद या शब्द को बस एक बार- पहली और अंतिम बार सुनता है। उसे वह संवाद या शब्द पगार नहीं समझ में आया तो न ही वह किताब की तरह पन्ने पलट कर दोबारा उसे पढ़ सकेगा और न ही वह उस समय शिक्षक या किसी बड़े से उसका अर्थ पूछ सकेगा ।क्योंकि नाटक तो मंच पर हो रहा है ।वहां उसके पास ये सुविधाएँ नहीं होंगी। हो सकता है वाक्य या शब्द की कठिनाई से उसका आगे नाटक देखने का तारतम्य पूरी तरह बाधित हो जाय और वह आगे की कहानी को न समझ सके ।आगे के नाट्य प्रदर्शन का आनंद ही न उठा सके।

  इसीलिए बाला नाटक लिखते समय इस बिंदु पर भी ध्यान देना बहुत ही जरूरी है कि नाटक में शब्द सरल हों,वाक्य छोटे-छोटे हों,भाषा बोलचाल की हो तभी वो नाटक मंचन के योग्य भी बनेगा और बाल दर्शकों को आनंदित भी करने में सक्षम हो सकेगा।

4. दृश्य और लोकेशंस : ज्यादातर बाल नाटकों के मंचन के समय पात्र बच्चे ही होते हैं। कुछ छूते ,कुछ बड़े ।और उन्हीं बच्चों को अभिनय के साथ ही पूरे मंचन के दौरान मंच की व्यवस्था भी निर्देशक की सहायता से करनी पड़ती है ।यानि उनके ऊपर अभिनय के साथ ही मंचन की अन्य जिम्मेदारियां भी रहती हैं।

 ऐसे में अगर हम अपने तीस,चालीस या फिर पैंतालीस मिनट के अपने नाटक में कई अलग-अलग दृश्य अलग-अलग लोकेशंस की रखेंगे तो बाल कलाकारों और बाल रंगकर्मियों के लिए काफी दिक्कत पेश आयेगी, क्योंकि ज्यादातर प्रस्तुतियों में बाल कलाकार ही एक दृश्य ख़तम होने पर उस दृश्य का सेट हटाने और अगले दृश्य का सेट लगाने का काम करते हैं ।यदि हमारे बाल नाटक में कई दृश्य होंगे और उनकी लोकेशंस भी अलग अलग होगी तो कैसे वो इतनी जल्दी जल्दी सेट प्रापर्टीज को शिफ्ट करके अगले दृश्य का सेट लगा सकेंगे ।इसलिए सभी बाल नाटक लेखकों को चाहिए कि वो अपने नाटक को पांच -सात दृश्यों और दो या तीन लोकेशंस में ही बाँध कर रखें ।जिससे बाल कलाकारों को बार बार दृश्य परिवर्तन और नये सेट प्रापर्टीज के बदलाव में होने वाली दिक्कतों से बचाया जा सके।

5. कास्ट्यूम या ड्रेस : नाट्य आलेख के अनुरूप कास्ट्यूम या ड्रेस का इंतजाम करना भी बहुत कठिन काम होता है। इसलिए बाल नाटक लिखते समय इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि बच्चों को भारी भरकम कास्ट्यूम पहनाने के लिए लेखक न लिखे तो अच्छा होगा। यदि नाटक का बैकग्राउंड ऐतिहासिक या पौराणिक भी है तो भी लेखक पात्रों के ड्रेस के लिए लिख सकता है कि कास्तूम या ड्रेस सिम्बालिक ही इस्टे म आल किये जायं, न की रियलिस्टिक ।मसलन यदि किसी बच्चे को राजा बनाना है तो उसे सिर्फ दफ्ती का एक मुकुट लगा कर भी काम चलाया जा सकता है बजाय इसके कि उसे राजा की पूरी भारी भरकम ड्रेस पहनाई जाय।

6. मंच की सीमाओं का ध्यान जरूरी : मंच की अपनी सीमाएं होती हैं। सीमाओं से मेरा मतलब यह है कि टी०वी० या सिनेमा के परदे पर तो हम कहीं का भी कोई भी दृश्य दिखा सकते हैं चाहे वह पेरिस का एफिल टावर हो या दिल्ली की क़ुतुब मीनार, लेकिन मंच पर इन्हें साकार करना बच्चों के लिए बहुत कठीन होगा।

  अक्सर नाटक का लेखक तो लिख देता है कि –“पहाड़ियों से घिरे गाँव का दृश्य” अब इस पहाड़ियों से घिरे गाँव के दृश्य को मंच पर लाना कितना कठिन होगा? उसका सेट मंच पर लगाने में क्या-क्या दिक्कतें पेश आएंगी ये बात हमारे रंगकर्मी मित्र ही समझ सकते हैं।और वो भी ख़ास कर तब जब मंचन का सारा दारोमदार बच्चों पर ही केन्द्रित हो।

 इसलिए बाल नाटक लिखते समय सभी बाल नाटक लेखकों को मंच की सीमाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए ।हमें ऐसी लोकेशंस पर अपने दृश्यों का सृजन करना चाहिए जिसे मनचा पर बनाया जा सके। “पहाड़ियों से घिरे गाँव” की जगह सिर्फ “गाँव का दृश्य” भी लिखा जा सकता है, अगर किसी या किन्हीं बच्चों को फुटबाल खिलवाना जरूरी ही हो और नाटक की डिमांड भी हो तो जरूरी नहीं कि नाटक में “फुटबाल के मैदान का दृश्य” लिखा जाय। बच्चों को किसी घर के आंगन या बरामदे में भी फुत्ताबाल खिलवाया जा सकता है।

    ये तो कुछ महत्वपूर्ण बिंदु थे जो बाल नाटकों के मंचीय तत्व या घटक कहे जा सकते हैं। यदि बाल नाटक लेखक इन बिदुओं को ध्यान में रख कर अपने नाट्य आलेख या स्क्रिप्ट्स तैयार करें तो कोई कारण नहीं कि उनका मंचन न हो सके ।या वह बाल नाटक सिर्फ पत्रिकाओं या किताबों तक सीमित हो कर रह जाय।

- डॉ. हेमन्त कुमार
मो.नं: 94512 50698

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