सांप्रदायिकता : अर्थ और परिभाषा Communalism Meaning and Definition

Dr. Mulla Adam Ali
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Communalism: Meaning and Definition

सांप्रदायिकता : अर्थ और परिभाषा

Communalism: Meaning and Definition

     सांप्रदायिकता शब्द आज जिस अर्थ में और संदर्भ में प्रयुक्त होता है उस अर्थ में ये प्रारंभ में प्रयुक्त नहीं होता था। विशेषतः भारत में ये शब्द आज जिस अर्थ का प्रतिनिधित्व करता है उस अर्थ में या संदर्भ में पहले प्रयुक्त नहीं था।

    सांप्रदायिकता यह शब्द अंग्रेजी शब्द Communalism का अनुवाद है। कम्युलनिज्म यह शब्द मूलतः Commune से बना है जिसका कोशगत अर्थ है यूरोप के किसी देश का सबसे छोटा जिला अथवा ऐसा जनसमूह जो समान कानून के अंतर्गत रहता हो। आगे चलकर इसी शब्द से Communalism और Communism ये शब्द बने। कम्युनिज्म का कोशगत अर्थ है “ऐसा समाज जो समान तत्वों के आधार पर एकत्र रहता है।“1  आधुनिक कोशों में इसका अर्थ ‘जाति विषयक भावना’ अथवा ‘जातिवाद’ दिया है। वास्तव में इस प्रकार के समाज की कल्पना प्लेटों ने की थी। 16वीं शताब्दी के पश्चात विद्वान थामस मोरेस ने इसे Utpla कहा जिसके अंतर्गत ईसाई सभ्यवादी समाज के राज्य का उससे वर्णन किया है।

    किंतु आज के संदर्भ में सांप्रदायिकता अथवा जमातवाद का अर्थ देखना जरूरी है। इसकी कई परिभाषाएं विद्वानों ने प्रस्तुत की है।

i. सांप्रदायिकता एक विचार प्रणाली है।

ii. सांप्रदायिकता एक मिथ्या समझ या विचार है।

iii. आज के सीमित संसाधनों में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए किया जाने वाला संघर्ष है।

iv. सत्ताधारी पक्ष की वर्गीय राजनीति का यह एक हथियार है।“2

    डॉ. विलफ्रेड स्मिथ के अनुसार सांप्रदायिकता अथवा जमातवाद एक ऐसी विचार प्रणाली है जिसमें अलग-अलग धर्म मानने वाले समाज समूह के स्वरूप को उनके धर्म के आधार पर ही स्वतंत्र-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गुट के रूप में प्रस्तुत करने का जोरों से प्रयास किया जाता है। इस अलगाववादी का समर्थन करने के लिए इन समूहों के आपसी वैषम्य, भेद और वैमनस्य को प्रखरता के साथ प्रगट किया जाता है।“3

     स्पष्ट है कि सांप्रदायिकता का संबंध किसी धर्म, जाति अथवा समूह की अस्मिता से है, जिसका आधार अन्य समूह के वैषम्य, भेद और वैमनस्य होता है।

     आज भारत में सांप्रदायिकता का बोलबाला वैयक्तिक आपसी संबंध स्थानीय तथा राष्ट्रीय राजनीति, परस्पर धार्मिक और जातीय टकराव आदि जगहों पर प्रखर रूप से देखने को मिलता है। सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में सांप्रदायिकता का उपयोग अपने समूह का प्रभाव निर्माण करने के लिए एक हथियार के रूप में किया जा रहा है। हर गांव, शहर और कस्बे में इस तरह के सांप्रदायिक संगठनों का बोलबाला है।

     आज भारत में सांप्रदायिकता, जमातवाद फिरका परस्ती आदि शब्द जिन विशिष्ट अर्थ और संदर्भ में प्रयुक्त होते हैं उसे समझने के लिए भारतीय इतिहास के कुछ पन्नों को पलटकर देखना आवश्यक है।

     सांप्रदायिकता को परिभाषित करते हुए यशवंत विष्ट कहते हैं “सांप्रदायिकता कोई मूर्त रूप व स्थूल रूप नहीं है। यह एक भावना है जो बाद में मूर्त रूप व स्थूल रूप को जन्म देती है, मूल रूप से सांप्रदायिकता अपने संप्रदायों के विशुद्ध मौलिक सिद्धांत ही सन्निहित रहते हैं। कालांतर में शनै: शनै: अन्य दूषित भावनाओं के सम्मिश्रण से उसमें संकुचित भावनाएं बढ़ती जाती है। फलतः एक दिन वे पवित्र भावनाएँ अत्यंत विषैली बन जाती है जिससे सांप्रदायिकता शब्द बहुत कलंकित और कलुषित बन जाता है।“4  यह परिभाषा स्पष्ट करती है कि सांप्रदायिकता शब्द अपने अर्थ को बदल लेती है। यह सही भी है। संभव है आज सांप्रदायिकता शब्द जिस घृणित अर्थ की अभिव्यक्ति करता है, पहले वैसा अर्थ न देता है।

    विपिन चंद्र के अनुसार “सांप्रदायिकता मूलतः एक विचारधारा है। इस विचारधारा के अविच्छिन्न नतीजे है- सांप्रदायिक दंगे और सांप्रदायिक हिंसा।“5

      इस प्रकार सांप्रदायिकता एक ऐसी भावना है जो धार्मिक और अधार्मिक दोनों प्रकार के मनुष्यों के अचेतना में भी विद्यमान रहती है और अनुकूल परिस्थितियों को पाकर उभर पड़ती है तथा लोगों को धर्म के नाम पर एक दूसरे को मारने और उनकी भावनाओं को चोट पहुंचाने पर आमादा कर देती है। यह एक संक्रामक भावना है जो छूत के रोग की तरह फैलती है और सुंदर संस्कृत समाज के आलीशान महल को देखते-देखते खंडहर में तब्दील कर देती है। यह सुंदर समाज को ऐसी जंगल में बदल देती है जहां किसी का किसी पर टूट पड़ना उसे जान से मार डालना सिर्फ धर्म पर निर्भर करता है।

        विख्यात इतिहासकार विपिन चंद्र ने सांप्रदायिकता के वृक्ष की जड़ों तक जाकर पड़ताल की है –“सांप्रदायिकता और इसकी बढ़ोतरी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक घटनाओं एवं परिस्थितियों का परिणाम था। आर्थिक पिछड़ापन, अर्धसामंती-जागीरदारी वर्गों एवं संस्तरों के हितों, मध्यवर्गों की अस्थिर आर्थिक व्यवस्था, भारतीय समाज के भीतर विभाजन तथा उसका असमान और अनेक पहलुओं वाला सांस्कृतिक स्वरूप एवं राष्ट्रवादी शक्तियों की विचारधारा कमजोरी- इन सबने मिलकर सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। इसके विशुद्ध संघर्ष को क्षीण किया।“6

       रामधारी सिंह दिनकर अपने ग्रंथ “संस्कृति के चार अध्याय” में लिखते है-"सांप्रदायिकता संक्रामक रोग है। जब एक जाति, भयानक रूप से सांप्रदायिक हो उठती है, तब दूसरी जाति भी अपने अस्तित्व का ध्यान करने लगती है और उसके भाव भी शुद्ध नहीं रह जाते”7  इस तरह समाज में जब एक समुदाय के व्यक्ति सांप्रदायिक हो उठते हैं तो दूसरे संप्रदाय भी उनकी देखा-देखी सांप्रदायिकता की चपेट में आ जाते हैं।

        चूंकि सांप्रदायिकता का आधार धर्म है, इसी वजह से एक धर्म का व्यक्ति दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु बन जाता है और धर्म का समूल नाश करने की भावना से न केवल विरोधी धर्म व्यक्तियों की हत्या करता है, उनके मकान-दुकान को लूटता है बल्कि उनके धार्मिक स्थानों को अपवित्र करता है। धर्म का संबंध मानव के हृदय से है और धार्मिक स्थान लोगों की धार्मिक भावना या श्रद्धा के केंद्र होते है, इसी कारण किसी धर्मनिवेश से संबद्ध व्यक्ति के प्रति अपने क्रोध का प्रदर्शन करने हेतु अन्य धर्मावलंबी धार्मिक स्थानों को नुकसान पहुंचाते हैं।

       रामपुनियानी एवं शरदशर्मा ने सांप्रदायिकता अर्थ इस तरह लिखते हैं कि –“सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा है जिसके अनुसार एक धर्म से ताल्लुक रखने वाले सभी लोगों के सामान्य, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हित समान होते हैं और ये हित दूसरे धर्म से जुड़े लोगों के हित से अलग होते हैं।“8

        सामाजिक क्षेत्र में सांप्रदायिकता को खान-पान, पूजा-पाठ, जाति-नस्ल आदि की भिन्नताओं को ही धर्म का आधार मानकर तथा अपनी मान्यता वाले धर्म को सर्वश्रेष्ठ और दूसरी मान्यता वाले धर्म को निकृष्ट समझना, उनके प्रति नफरत, द्वेष-भाव और फैलाना सांप्रदायिकता के अंतर्गत आता है।

        भारत जैसे अत्यंत जटिल सामाजिक संरचनावाले, विविध धर्म और संप्रदायों वाले देश के लिए सांप्रदायिकता, सांप्रदायिक मनोवृति, सांप्रदायिक टकराव या बड़े स्तर का सांप्रदायिक संघर्ष या हिंसा, नफरत कोई नई बात नहीं हैं। आधुनिक समाज में समय-समय पर सांप्रदायिकता का रूप बदलता जा रहा है ये समस्या राष्ट्रीय समस्या के रूप में विद्यमान दिखाई देती है। वर्तमान राजनीतिक वातावरण ने इस समस्या को और अधिक फैलाने तथा जटिल होने के अवसर प्रदान किए हैं।

    सांप्रदायिकता धर्म को अपना हथियार बनाती है और लोगों की भावनाओं को भड़का कर सांप्रदायिक दंगे कराती है लेकिन सांप्रदायिकता जैसी विकृति भावना का धर्म से वस्तुतः कोई संबंध ही नहीं है। यह मात्र लोगों को बरगलाकर सत्ता में बने रहने की चाह रखने वाले लोगों के द्वारा इस्तेमाल की जाती है और धर्म को अपना हथियार बनाने के पीछे इसका एकमात्र मकसद यही रहा है। भारत के लोग अगर किसी बात पर सबसे अधिक उत्तेजित होते हैं तो वह मुद्दा है धर्म का, इसी कारण सांप्रदायिकता धर्म को हथियार बनाती है। धार्मिक संप्रदाय में जब उस कट्टर भावना का समावेश होता है तो स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य धर्मों को निकृष्ट समझकर उनका विनाश को उद्धत हो जाती है तो जहां सांप्रदायिकता का जन्म होता है।

     अगर सांप्रदायिकता का संबंध धर्म से होता तो आज हर धार्मिक व्यक्ति सांप्रदायिक होता लेकिन ऐसा नहीं है। प्रो. नामवर सिंह के शब्दों में कहे तो –“सांप्रदायिक वे होते हैं जिनमें धार्मिक आस्था नहीं होती।“9  क्योंकि सांप्रदायिकता का संबंध सत्ता से हैं।

परिभाषाएँ:

      सांप्रदायिकता एक समुदाय के विशेष के लोगों के लिए इस विश्वास पर आधारित अवधारणा है, विपिन चंद्र के शब्दों में “किसी खास धर्म को मानने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक हित भी समान होते हैं। यह वही धारणा है जो भारत में हिंदू, मुसलमान, ईसाइयों और सिखों को अलग-अलग समुदाय मानती है, जिनका निर्माण एक दूसरे से अलग-थलग और बिल्कुल स्वतंत्र रूप से हुआ है।“10  सांप्रदायिकता को और स्पष्ट करते हुए विपिन चंद्र लिखते हैं -“सांप्रदायिकता का आधार ही यह धारणा है कि भारतीय समाज कई ऐसे संप्रदायों में बंटा हुआ है जिसके हित सिर्फ अलग है बल्कि एक दूसरे के विरोधी भी है। सांप्रदायिकता के जन्म के पीछे का विश्वास यह भी है कि राजनीतिक और आर्थिक से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक इरादों के लिए लोगों को सिर्फ धर्म की रस्सी से ही बांधकर आंका जा सकता है। दूसरे शब्दों में अलग-अलग समुदायों के हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि धर्म से परे मामलों में भी एक निश्चित समूह की तरह आचरण करेंगे क्योंकि उनका धर्म एक है।”11

     गोपीनाथ कालभोर सांप्रदायिकता की वृत्ति में विध्वंसक एवं दंगाई होने को भी शामिल करते हैं –“समूहों के हितों के बीच होने वाले टकराव का रूप जब विध्वंसक और दंगाई हो जाए तो तब वह सांप्रदायिक कहलाता है।“12

     एक अवधारणा के रूप में सांप्रदायिकता के स्थापित होने के पीछे सुगठित एवं व्यवस्थित विचारधारा होती है। इसके स्वगठित सिद्धांत है जो कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक मिथकों पर आधारित है और इस भावना के प्रचार प्रसार में इन मिथकों का पर्याप्त योगदान स्वीकार किया जाता है। सांप्रदायिकता दो या दो से अधिक समुदायों के टकराव एवं संघर्ष के आधार पर फलती-फूलती है। इस प्रक्रिया में वह हिंसक हो उठती है। सांप्रदायिक हिंसा के लक्षणों पर राम आहूजा लिखते हैं कि –“सांप्रदायिक हिंसा में दो विभिन्न धर्मों से संबद्ध लोग सम्मिलित होने हैं जो एक दूसरे के विरुद्ध गतिवान हो जाते हैं तथा एक दूसरे के प्रति दुश्मनी, भावनात्मक क्रोध, शोषण, सामाजिक भेदभाव तथा सामाजिक उपेक्षा से पीड़ित होते हैं। एक संप्रदाय की दूसरे के प्रति एकता उच्च कोटि के तनावों एवं ध्रुवीकरण के बीच बनी हुई है। आक्रमण के लक्ष्य ‘शत्रु’ समुदाय के सदस्य होते हैं। सामान्यतः सांप्रदायिक दंगों के दौरान कोई नेतृत्व नहीं होता जो कि दंगों की स्थिति को रोक सके या नियंत्रित कर सके।“13

    सांप्रदायिकता धार्मिक भाषाई एवं नृतत्वीय आधारों पर अस्तित्व में आती है जो राजनीति के चक्कर में पढ़कर विकसित होती है। रामपुनियानी ने सांप्रदायिकता को राजनीति की घिनौनी हरकतों का परिणाम कहा है। उनके मत में सांप्रदायिकता का एक भयानक सच सांप्रदायिक हिंसा है जो “समाज में गहराई से बैठी सड़न की अभिव्यक्ति है। सांप्रदायिक राजनीति सभी सामाजिक पहचानो पर धर्म का मुखौटा लगा देती है।“14  सांप्रदायिकता पर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए वे लिखते है –“सांप्रदायिकता के कई पहलू है और इसके बारे में कई मत है। एक आम मत यह है कि सांप्रदायिकता संभ्रांत लोगों की राजनीति है लेकिन इसे समाज के बड़े वर्गों को इकट्ठा करके निष्पादित किया जाता है। यह वर्ग इस विश्वास के साथ इसमें हिस्सा लेते हैं कि यह धर्म और पुरानी परंपरा द्वारा पवित्र मानी गई व्यवस्था को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास है। इसका उद्देश्य संभ्रांत वर्ग की राजनीतिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा करना होता है। इसकी सफलता इसके आकर्षण पर निर्भर करती है। शुरुआत इस आधार पर होती है कि एक धर्म के अनुयायियों के हित एक समान होते हैं।.. इसका उग्र रूप उस समय सामने आता है जब यह कहा जाता है कि एक समुदाय दूसरे धार्मिक समुदाय के हितों का विरोधी होता है।“15  सांप्रदायिकता के भाषाई एवं नृतत्वीय आधार की अपेक्षा धार्मिक आधार अधिक हुए होते है, क्योंकि धार्मिक आधार पर भावनाओं को आसानी से उभारा जा सकता है।

    सांप्रदायिकता एक आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक प्रवृत्ति है, जिसकी सामाजिक जड़ों तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों को भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में खोजा जा सकता है। यह आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों की पूर्ति करती थी। आर्थिक ढांचे ने न केवल इसे उत्पन्न किया अपितु उसके कारण ही यह फली-फूली थी। सांप्रदायिकता का सामाजिक आधार उस उबरते हुए मध्यवर्ग पर अवलंबित था, जो तत्कालीन परिस्थितियों के वातावरण में अपने धार्मिक हितों के साथ अपने आर्थिक हितों को भी ढूंढ रहा था।

     सांप्रदायिकता संस्कृति का आधार लेकर लोगों को गुमराह करने का कार्य करती है। किसी विशेष प्रकार की संस्कृति और धर्म को दूसरों पर आरोपित करने की भावना या धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता है। सांप्रदायिकता समाज में वैमनस्य उत्पन्न कर एकता को नष्ट करती है। सांप्रदायिकता के कारण समाज को दंगे और विभाजन जैसे कुपरिणामों को भुगतना पड़ता है। साम्राज्यवादी ताकतें गरीब देशों पर या एक दूसरे देश पर आधारित करने या उस को कमजोर करने की नीयत से सांप्रदायिकता फैलाते हैं। सांप्रदायिकता सामाजिक सद्भावना के लिए घातक है। आपसी मत भिन्नता को सम्मान देने के बजाय विरोधाभास का उत्पन्न होना अथवा ऐसी परिस्थितियों का उत्पन्न होना जिससे व्यक्ति किसी अन्य धर्म के विरोध में अपना वक्तव्य प्रस्तुत करें, सांप्रदायिकता कहलाता है। जब एक संप्रदाय के हित दूसरे संप्रदाय से टकराव है तो सांप्रदायिकता का उदय होता है, यह एक उग्र विचारधारा है जिसमें दूसरे संप्रदाय की आलोचना की जाती है; एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय को अपने विकास में बाधक माना लेता है।

संदर्भ;

1. Communalism : Principal’s of Communal Organization of Society, The Consistent Oxford Dictionary- P-189
2. डॉ.चौसालकर- डॉ. के.एन. पणिकर,मराठी अनुवाद- पृ-1
 वहीं- पृ-1
3. यशवंत विष्ट- सांप्रदायिकता : एक चुनौती और चेतना- -47
4. विपिन चंद्र- सांप्रदायिकता पर हमला- नयापथ, अक्तूबर-दिसम्बर, 1992 में संकलित- पृ-17
5. श्याम कश्यप – भीष्म साहनी- पृ-52-53
6. रामधारी सिंह दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय- पृ-715
7. रामपुनियानी एवं शरदशर्मा- सांप्रदायिकता, ए ग्राफ़िक अकाउंट
8. प्रो. नामवर सिंह- सांप्रदायिकता का सवाल ‘राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद’ में संकलित- पृ-42
9. विपिन चंद्र- आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता- पृ-1
10. विपिन चंद्र- सांप्रदायिकता एक परिचय- पृ-7
11. गोपीनाथ कालभोर- धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता- पृ-170
12. राम आहूजा- भारतीय समाज- पृ-242
13. रामपुनियानी- सांप्रदायिक राजनीति : तथ्य और मिथक- पृ-14
14. रामपुनियानी- सांप्रदायिक राजनीति : तथ्य और मिथक- पृ-14
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3. सांप्रदायिकता की समस्या और हिंदी उपन्यास

4. Communalism in India : सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि और भारत में सांप्रदायिकता

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