माउंट बेटन का भारत आगमन और भारतीय स्वतंत्रता तथा विभाजन की घोषणा
ब्रिटिश पार्लमेंट में भारत की स्वतंत्रता संबंध में निर्णय लिया गया, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने 18 फरवरी 1987 में सदन में ऐतिहासिक घोषणा पढ़कर सुनाई –“महमाना सम्राट की सरकार यह स्पष्ट करने को प्रस्तुत है कि भारत का प्रशासन वही के किन्हीं योग्य हाथों में सौंप देने का निश्चित निर्णय सरकार ने ले लिया है और उन सभी आवश्यक कदमों उठाना चाहती है, जिससे 1948 तक शक्तियों का स्थानांतरण हो जाए।“1
सत्ता का स्थानांतरण करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड माउंट बेटन की नियुक्ति भारत के अंतिम वायसराय के रूप में की और माउंट बेटन भारत आकर अपना कार्यभार करना शुरू किया। इसी समय लीग के असहयोग से कांग्रेस की कार्यकारिणी ने 6 मार्च सन् 1947 को एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें सांप्रदायिक दंगों की भीषणता को कम करने के लिए सांप्रदायिक आधार पर विभाजन को स्वीकृति दे दिया गया।
सरदार वल्लभ भाई पटेल और नेहरू भी विभाजन की अनिवार्यता को समझ गए थे। पटेल ने स्वीकार किया –“चाहे हमें पसंद हो या न हो, यह सत्य है कि भारत में दो राष्ट्र है। इस सत्य को स्वीकार करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता हमारे पास नहीं है।“2 पटेल शुरू से अखंड भारत के पक्ष में थे लेकिन स्थितियों ने और माउंट बेटन के तर्कों ने उनके विचारों में भी परिवर्तन घटित कर लिया।
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माउंट बेटन सत्ता के हस्तांतरण के लिए आए थे लेकिन यहां आकर उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि विभाजन के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। भारत को अखंड रखने की प्रयास किए माउंट बेटन लेकिन वह साध्य नहीं हुआ –“निःसंदेह उनकी हार्दिक इच्छा थी कि भारत अखंड रहे, किंतु इस इच्छा के पीछे अपने देश इंग्लैंड की प्रतिष्ठा दांव पर नहीं लगाई जा सकती”3 अंततः उन्होंने फैसला लिया कि –“वायसराय का पहला प्रयास यही होगा कि भारत के नेता एकता का परिचय दें और देश के टुकड़े होने से बचाए, लेकिन यदि वे एक नहीं हो पाते हैं तो उन्हें सदैव के लिए झगड़ते छोड़कर अंग्रेज इस देश से पलायन नहीं कर सकते। ऐसी सूरत में वायसराय का धर्म होगा कि वह देश के टुकड़े कर दे, ताकि हिंदू और मुसलमानों के झगड़े अनंत काल तक जारी न रहे।“4 लेकिन माउंट बेटन के विचार पूरी तरह से सही नहीं थी क्योंकि विभाजन के निर्णय के बाद से ही सारे देश में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए और विभाजन के बाद तक जारी रहे। यह दंगे संक्रामक रोग की तरह, अफवाहों के माध्यम से एक शहर से दूसरे शहर में फैलते रहे।
माउंट बेटन ने सभी नेताओं को प्रभावित करने के लिए “वशीकरण अभियान ऑपरेशन सिडक्शन चलाया। नेहरू, पटेल तथा जिन्ना को प्रभावित कर लिया। अंततः 2 जून 1947 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने काफी चर्चा के बाद विभाजन योजना को मंजूर दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बैठक में गांधीजी आमंत्रित नहीं थे।
अंततः 3 जून 1947 को ब्रिटिश संसद ने विभाजन को स्वीकार कर लिया। जुलाई 1947 ने ब्रिटिश पार्लमेंट ने भारतीय स्वतंत्रता के संबंध में निर्णय लिया –“हिंदुस्तान और पाकिस्तान के नाम से भारत दो राष्ट्रों में परिवर्तित हुआ। 15 अगस्त 1947 से दोनों राष्ट्र स्वतंत्र माने जाएंगे। 15 अगस्त को ही भारतीय शासन की सत्ता ब्रिटिश सरकार से पृथक होती है। उस दिन के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के संबंध में ब्रिटिश पार्लमेंट को कानून पास करने का अधिकार न रहेगा। दोनों राष्ट्रों के अलग-अलग, स्वतंत्र रूप से अस्तित्व होंगे।“
वस्तुतः स्वाधीनता के युद्ध में एक ओर हमें विजय मिली तो दूसरी ओर विभाजन के रूप में एक ऐसी पराजय जिसे भारत और पाकिस्तान दोनों राष्ट्र कभी भुला नहीं सकते। विभाजन के बाद देश में सांप्रदायिकता शुरू हुई वह किसी न किसी रूप में आज तक जारी है।
संदर्भ;
1. कॉलिन्स और लैपियर – आधी रात को आजादी- पृ-53
2. वहीं – पृ-92
3. मौलाना अबुल कलाम आजाद – इंडिया विन्स फ्रीडम- पृ-185
4. कॉलिन्स और लैपियर – आधी रात को आजादी- पृ-76
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