रामचरित मानस : हिंदू धर्म और संस्कृति का दर्पण

Dr. Mulla Adam Ali
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Tulsidas : RamCharitManas

Ramcharitmanas by Tulsidas

रामचरित मानस : हिंदू धर्म और संस्कृति का दर्पण

"नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद,

रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा,

भाषानिबंधमति मन्जुलमातनोति॥"

वस्तुतः 'मानस' हिन्दू संस्कृति का क्षीर सागर है। सभ्यता का प्रकाश स्तंभ है। जीवन मूल्यों की गंगोत्री है। मर्यादा और आदर्श का विश्व कोश है। पांचसौ वर्ष के लगभग व्यतीत हो जाने के बाद आज भी यह महान ग्रंथ हिन्दू धर्म का प्रमाणिक व्याख्याता, मार्गदर्शक और निःश्रेयस का सेतु बना हुआ है।

महात्मा गांधी इसे 'विचार रत्नों का भंडार' मानते थे, तो महामना पं. मदनमोहन मालवीय इसे ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की निर्मल त्रिवेणी का बहता प्रवाह मानते हुए मनुष्य जाति को अनिर्वचनीय सुख और शांति पहुंचाने का साधन स्वीकार करते थे।

महाकवि जयशंकर प्रसाद कहते थे कि, "महाकवि तुलसीदास ने आदर्श, विवेक और अधिकारी भेद के आधारभूत युगवाणी रामायण की रचना की।"

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युगेश्वर की मान्यता रही कि, 'मानस एक ऐसा वाग् द्वार है जहां से समस्त भारतीय साधना और ज्ञान परंपरा प्रत्यक्ष दीख पड़ती है। दूसरी ओर इसमें देशकाल से परेशान, दुखी और टूटे मनों को सहारा तथा संदेश देने की अद्भुत क्षमता है। आज भी यह करोड़ों मनों का सहारा है।'

"वस्तुतः मानस का उद्देश्य भारतीय धर्म और दर्शन का प्रतिपादन करना है। इसलिए इसमें उच्च दार्शनिक विचार, धार्मिक जीवन और सिद्धांत, वर्णाश्रम, अवतार, ब्रह्मनिरुपण और ब्रह्मसाधना, सगुण-निर्गुण, मूर्तिपूजा, देवपूजा, गो-ब्राह्मण रक्षा, वेदमार्ग का मण्डन, अवैदिक और स्वच्छंद पंथों की आलोचना, कुशासन की निंदा, कलियुग-निंदा, रामराज्य की प्रशंसा आदि विषयों का सुंदर प्रतिपादन हुआ है। इसी प्रकार पारिवारिक संबंध और प्रेम, पातिव्रत, पत्नीव्रत, सामाजिक व्यवहार, नैतिक आदर्श आदि का विवेचन भी इसमें यत्र-तत्र भरा पड़ा है।" डॉ. राजबलि पांडेय (हिन्दू धर्म कोश)

"तुलसीदास की इस रचना में अनेक दुर्लभ गुण हैं, किंतु कदाचित् अपने जिन महान गुणों के कारण इसने यह असाधारण सम्मान प्राप्त किया है, वह ऐसी मानवता को कल्पना है, जिसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निवैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण अपनी पराकाष्ठा के साथ मिलते हों, और फिर भी जो अव्यावहारिक न हों।"  - (धीरेन्द्र वर्मा, हिन्दी साहित्यकोश, भाग-2)

"मानस में जीवन के सभी पहलुओं, संयोग-वियोग सहित सभी रसों का चित्रण होते हुए भी मर्यादाबाद का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है । इसलिए कोई भी वधू अपने सास-ससुर, पुत्र-पुत्री तथा अपने माता-पिता को रामचरितमानस आद्योपांत विना किसी झिझक के सुना सकती है। वस्तुतः अनुद्वेगकारी वाणी का, वाङ्मय तप की, सम्यक्वाक् का ऐसा महान दर्शन संसार- साहित्य की किसी भी कलाकृति में नहीं हो सकता।" - डॉ. रामप्रसाद मिश्र (विश्वकवि तुलसी और उनका काव्य)

 समन्वय का महाप्रयास : वस्तुतः तत्कालीन हिन्दू समाज में दर्शन, धर्म, संस्कृति, भक्ति आदि क्षेत्रों में मत-मतांतर चरम सीमा पर था। इस मत भिन्नता के कारण हिन्दू समाज में फूट थी। एक ओर मुस्लिम शासन का आतंक और अत्याचार, दूसरी ओर हिन्दू समाज में फूट कैसे समाज का उद्धार होगा ? उन्होंने 'मानस' के द्वारा समाज में व्याप्त वैषम्य मिटाकर एक रुपता, समन्वय लाने का प्रयत्न किया। मतभेद भुलाकर हिन्दूसमाज को संगठित होने की प्रेरणा दी।

ज्ञान और भक्ति का समन्वय करते हुए वे लिखते हैं-

"ज्ञानहिं भक्तिर्हि नहिं कछु भेदा,

उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥"

शैवों और वैष्णवों के संघर्ष को शांत करने के लिए वे कहते हैं-

"शिव द्रोही मम् दास कहावा,

सो नर सपनेहु मोहि ना भावा।।'

सगुण-निर्गुण के झगड़े को शांत करते हुए वे कहते हैं-

"सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा,

गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा।।"

तुलसीदास जी के इस समन्वयकारी दृष्टिकोण का मूल्यांकन करते हुए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं- "रामचरितमानस में केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है, बल्कि उसमें वैराग्य और गार्हस्थ का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भावावेश और अनासक्त चिंतन का, ब्राह्मण और चाण्डाल का, पंडित और अपंडित का समन्वय आदि से अंत तक सुंदर ढंग से दृष्टिगोचर होता है।"

वस्तुतः रामचरितमानस में समन्वयवाद की झलक स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।

वस्तुतः तुलसी ने आक्रांताओं के अत्याचारों को खुले नेत्रों से प्रत्यक्ष देखा था। हिन्दुओं के टूटते मनोबल की त्रासदी से वे आहत हुए थे। इस टूटते मनोबल, भयाक्रांत हिन्दूधर्म और डूबते हिन्दू जीवन मूल्यों की रक्षा करने के निमित्त उन्होंने धनुर्धर श्रीराम को आदर्श पुरुष के रूप में खड़ा कर दिया। इसलिए मानस ने सैदव हिन्दू धर्म, सभ्यता व संस्कृति को जीवनमूल्यों का अमृतरस पिलाकर अमर बनाए रखा।

महाकवि हरिऔध जी के शब्दों में-

"कविता करके तुलसी न लसै।

कवितालसी पा तुलसी की कला॥'

- शरद नारायण खरे

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